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‘‘उद्धव, तुम सोचते हो कि तुम्हारा कर्म व्यर्थ गया। कर्म की व्यर्थता और सार्थकता पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं। केवल कर्म पर तुम्हारा अधिकार था—और तुमने अपना कर्म किया। फल तो तुम्हारे वश में नहीं था और न उसपर तुम्हें सोचना चाहिए।...तुम क्या, यदि तुम्हारी जगह मैं भी यहाँ आता, तो भी यह घटना घटती।’’
लाक्षागृह (कृष्ण की आत्मकथा -IV)
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