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एक ब्राह्मण का क्रोध तो हिमखंड पर अप्रत्याशित उभरी वह दावाग्नि है, जो अंततः उसके अस्तित्व को ही भस्म करके उड़ा देती है।
लाक्षागृह (कृष्ण की आत्मकथा -IV)
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