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संसार कितना बदल गया; पर मैं अपनी मानसिकता बदल नहीं पाया, अपनी यह दुर्बलता छोड़ नहीं पाया। प्रकृति के परिवेश बदलते ही मैं एक ऐसे संसार में चला जाता हूँ जहाँ न दुःख है, न व्यग्रता है, न चिंता है, न राजनीति है और न यहाँ की झंझटें। वहाँ केवल राधा है और मैं हूँ। प्रकृति की सरसता है और है सरसता की प्रकृति।
लाक्षागृह (कृष्ण की आत्मकथा -IV)
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