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लगता है, यह सन्नाटा ही शाश्वत है। सृष्टि के पूर्व भी यही था और प्रलय के बाद भी यही रहेगा। जीवन तो कुछ समय के लिए इस सन्नाटे को तोड़ता है; जैसे भाद्रपद की काली घटा के बीच बिजली चमकती है।’’
लाक्षागृह (कृष्ण की आत्मकथा -IV)
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