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ये लौह शलाकाएँ आप तोड़ना नहीं चाहते; क्योंकि आप इसे जीने लगे हैं। और जब व्यक्ति कारागार को जीने लगता है तब कारागार ही उसके लिए घर हो जाता है। उसकी प्राचीरों के प्रति उसका मोह हो जाता है। जिन्हें आप शलाकाएँ कहते हैं, वह आपका मोह है। इन्हें आप तोड़िए, पितामह; अन्यथा इनके भीतर से सत्य दिखाई नहीं पड़ेगा।...कम-से-कम
लाक्षागृह (कृष्ण की आत्मकथा -IV)
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