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‘जो मुँह से निकल जाता है, वही तो हृदय की बात है। ‘कहना चाहने’ में तो मस्तिष्क का योगदान होता है, जिसमें यथार्थ भी हो सकता है और दिखावा भी, अपेक्षाएँ भी हो सकती हैं और अभिनय भी; पर स्वतःस्फूर्त वाणी में होता है हृदय का सहज चित्र।’
लाक्षागृह (कृष्ण की आत्मकथा -IV)
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