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प्रेम गंगा की तरह पवित्र है और समुद्र की तरह विराट्। किसी भी स्नानार्थी या जल ग्रहण करनेवाले से गंगा यह नहीं कहती कि तुम मेरी पवित्रता को मत बाँटो। समुद्र ने कभी किसीसे कहा है कि मेरी विशालता का विभाजन मत करो? फिर प्रेम बाँटने की सीमा में आता भी नहीं। पूर्ण को पहले तो विभाजित नहीं किया जा सकता; फिर यदि किसी प्रकार विभाजित भी किया जाएगा तो पूर्ण ही बचेगा। वैसे प्रेम पहले तो बँट नहीं सकता और यदि बँटेगा भी तो प्रेम प्रेम ही बचेगा।’’
लाक्षागृह (कृष्ण की आत्मकथा -IV)
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