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इसे मेरे व्यक्तित्व की दुर्बलता कहिए या विशेषता कि मेरा स्वभाव ही अपने से अधिक दूसरों की चिंताओं को झेलने का अभ्यस्त होता जा रहा था। ऐसी स्थितियाँ मुझे व्यग्र नहीं करती थीं; पर मेरी जिज्ञासा को प्रगल्भ अवश्य कर देती थीं।
लाक्षागृह (कृष्ण की आत्मकथा -IV)
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