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जानते हो, भीतर का भाव छिपाने पर वह एक-न-एक दिन विषैले व्रण की तरह फूटता है और सारे व्यक्तित्व को घायल कर देता है।’’
लाक्षागृह (कृष्ण की आत्मकथा -IV)
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