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यद्यपि हमारा चिंतन पशुओं से अधिक विकसित है; पर हमारे राग-द्वेष ने हमारी संवेदनशीलता के पंख बहुत कतर दिए हैं और हम सहज प्रकृति के आकाश में उतनी सरलता से नहीं उड़ पाते और न अपने मित्र तथा शत्रु का उचित अनुमान लगा पाते हैं। वस्तुतः हम इस प्रयास में अपनी उस बुद्धि से काम लेते हैं, जो काम, क्रोध, लोभ, मोह से बेतरह घायल होती है।
लाक्षागृह (कृष्ण की आत्मकथा -IV)
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