कई ऐसे मौके आते हैं जब आपको किसी के बाप के मरने पर कोई दुख नहीं होता। न ही किसी की लड़की के घर से भाग जाने पर ढेला भी फर्क पड़ता है। लेकिन समाज की रघुकुल रीत ही कुछ ऐसी है कि सांत्वना दर्ज करानी ही पड़ती है। कुछ लोग इसके expert होते हैं। दूसरे के दुख में दुखी होने से जो सुख उन्हें मिलता है, उस परमानंद का आप पूछिए ही मत। वे तो जैसे इस इंतजार में ही साँस लेते हैं कि किसी पर कोई दुख पड़े और सांत्वना प्रकट करने पहुँच जाएँ।