अब मैं फिर से आत्मा और जगत के दुःख पर और सोचविचार शुरू नहीं करना चाहता। अब मैं स्वयं को और अधिक मारकर और अधिक चीर-फाड़कर अपने खण्डहरों में किसी रहस्य की खोज नहीं करना चाहता। मुझको न तो अब योग-शास्त्र से कुछ सीखना है, न अथर्ववेद से, और न ही किन्हीं दूसरे सिद्धान्तों से। मैं अब स्वयं से सीखना चाहता हूँ, अपना शिष्य बनना चाहता हूँ, अपने स्वत्व को समझना चाहता हूँ, सिद्धार्थ के रहस्य को समझना चाहता हूँ।"