Siddharth (Hindi) (Hindi Edition)
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Read between July 21 - July 25, 2025
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सिवा उसके, उस एकमात्र आत्मा के, आहुतियाँ देने योग्य और कौन है, कौन है उसके अलावा जिसकी पूजा की जाए?
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आपकी आत्मा ही सम्पूर्ण जगत है,"
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ओ३म् है धनुष, बाण है आत्मा, ब्रह्म है बाण का वह लक्ष्य, जिसको अनवरत बेधा जाना चाहिए।
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"हम व्यर्थ शब्द बरबाद न करें।
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सिद्धार्थ के सामने एक लक्ष्य था, इकलौता लक्ष्य : रिक्त हो जाने का, प्यास से रिक्त, इच्छाओं से रिक्त, सपनों से रिक्त, सुख और दुःख से रिक्त हो जाने का। अपने लिए मर जाना, स्वत्वहीन हो जाना, एक नितान्त रिक्त हृदय के साथ प्रशान्ति पा लेना, निःस्वार्थ विचारों में चमत्कारों के घटित होने के लिए तैयार रहना - यह था उसका लक्ष्य।
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ज्ञान केवल एक ही है, यह हर कहीं है, यह आत्मा है, यह मेरे भीतर भी है, तुम्हारे भीतर भी है और हर प्राणी के भीतर है। इसलिए मैं तो अब इस विश्वास की ओर बढ़
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रहा हूँ कि इस ज्ञान का, जानने की इच्छा से बड़ा, सीखने से बड़ा, कोई दूसरा शत्रु नहीं है।"
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तनिक सोचो : अगर ऐसा है, जैसा कि तुम्हारा कहना है, अगर कोई ज्ञान ही नहीं है, तो फिर प्रार्थनाओं की दिव्यता का क्या अर्थ रह जाता है, ब्राह्मण जाति की पूजनीयता का क्या अर्थ रह जाता है, समणों की पवित्रता का क्या अर्थ रह जाता
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कोई भी व्यक्ति उपदेशों के माध्यम से मुक्ति नहीं पा सकता!
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वह क्या वस्तु है, क्या वस्तु है वह जो तुम उपदेशों और गुरुओं से सीखना चाहते थे, और जो वे तुमको भरपूर शिक्षा देने के बावजूद सिखा नहीं सके? और उसने पाया : यह स्वत्व था, जिसके उद्देश्य और सारतत्त्व को मैं जानना चाहता था। यह स्वत्व था जिससे मैं ऊपर उठना चाहता था।
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इस दुनिया में कोई भी ऐसी दूसरी वस्तु नहीं है जिसके बारे में मैं उतना कम जानता होऊँगा जितना कम मैं अपने बारे में, सिद्धार्थ के बारे में, जानता हूँ!"
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अगर मैं अपने बारे में कुछ भी नहीं जानता,अगर सिद्धार्थ मेरे लिए अजनबी और अज्ञात बना रहा है, तो इसका एक ही कारण है, एकमात्र कारण : मैं स्वयं से डरता था, मैं स्वयं से भाग रहा था, मैं आत्मा की खोज कर रहा था, मैं ब्रह्म की खोज कर रहा था, मैं अपने स्वत्व की चीरफाड़ कर, उसकी एक - एक परत उधेड़कर, उसके अज्ञात अन्तरंग में झाँककर तमाम परतों के मर्म को पाना चाहता था, मैं आत्मा को, जीवन को, दिव्य अंश को, अन्तिम अंश को पाना चाहता था। लेकिन इस प्रक्रिया में मैंने स्वयं को खो दिया।"
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अब मैं फिर से आत्मा और जगत के दुःख पर और सोचविचार शुरू नहीं करना चाहता। अब मैं स्वयं को और अधिक मारकर और अधिक चीर-फाड़कर अपने खण्डहरों में किसी रहस्य की खोज नहीं करना चाहता। मुझको न तो अब योग-शास्त्र से कुछ सीखना है, न अथर्ववेद से, और न ही किन्हीं दूसरे सिद्धान्तों से। मैं अब स्वयं से सीखना चाहता हूँ, अपना शिष्य बनना चाहता हूँ, अपने स्वत्व को समझना चाहता हूँ, सिद्धार्थ के रहस्य को समझना चाहता हूँ।"
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लेकिन अब, उसकी मुक्त दृष्टि इस ओर टिक रही थी, वह दृश्यमान जगत को देख रहा था और उसके प्रति सजग हो रहा था, इस संसार के साथ आत्मीय होने का प्रयत्न कर रहा था, सच्चे सारभूत तत्त्व के पीछे नहीं भाग रहा था, इस संसार से परे किसी संसार को अपना लक्ष्य नहीं बना रहा था।
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बुद्ध का, ख़ज़ाना और रहस्य उनके उपदेश नहीं हैं, बल्कि अभिव्यक्ति और उपदेश से परे वह अनुभव है जो उनको प्रबोधन के क्षणों में हुआ था,
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विचार और इन्द्रियाँ दोनों ही सुन्दर वस्तुएँ हैं, अन्तिम अर्थ दोनों के ही पीछे छिपा हुआ है, दोनों को सुनना होगा, दोनों का आनन्द लेना होगा, दोनों का ही न तो तिरस्कार करना उचित होगा न ही उनको बढ़ाचढ़ाकर देखना उचित होगा, दोनों से ही उभरती अन्तरतम सत्य की आवाज़ पर पूरा-पूरा ध्यान देना होगा।
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प्रेम को अनेक तरह से पाया जा सकता है, भीख माँगकर, क्रय करके, उपहार के रूप में प्राप्त कर, सड़क पर पड़ा हुआ पाकर, लेकिन इसको छीना नहीं जा सकता। यहाँ
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हर मनुष्य, अगर उसमें सोचने की सामर्थ्य है, अगर उसमें प्रतीक्षा करने की सामर्थ्य है, अगर उसमें उपवास करने की सामर्थ्य है, तो हर मनुष्य जादू कर सकता है, हर मनुष्य अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।"
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लिखना उत्तम है, चिन्तन करना उससे भी उत्तम है। चतुर होना उत्तम है, धैर्यवान होना उससे भी उत्तम है।"
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आनन्द प्रदान किये बिना आनन्द पाया नहीं जा सकता,
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प्रेम वही लोग कर सकते हैं जो बच्चों की तरह सरल होते हैं; यही उनका रहस्य है।"
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भंगिमाओं को ओढ़ता रहता था जो अक्सर सम्पन्न लोगों के चेहरों पर देखी जाती हैं, असन्तोष की, रुग्णता की, अप्रसन्नता की, थकान की, प्रेम के अभाव की भंगिमाएँ। धीरे-धीरे आत्मा की उस बीमारी ने, जो सम्पन्न लोगों को घेरे रहती है, उसको भी जकड़ लिया।
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वासना किस क़दर मृत्यु की हमशक्ल होती है।
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तीन उदात्त और अजेय साहसिक कृत्यों को लेकर जिनमें वह सक्षम था : उपवास-प्रतीक्षा - चिन्तन।
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व्यक्ति उस हर वस्तु का स्वाद स्वयं ही चख ले, जिसको उसे जानना आवश्यक है।
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यह पानी भागता रहा था, भागता रहा था, अविराम भागता रहा था, और तब भी वह हमेशा वहीं का वहीं बना रहा था, हमेशा और हर समय जस का तस, और तब भी हर पल नवीन! कितना महान होगा वह जो इस बात को पकड़ सकेगा, समझ सकेगा!
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ऐसे लोग दुर्लभ हैं जो सुनना जानते हैं।
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तुमने पानी से सीख ही लिया है कि नीचे की ओर जाने का, डूबने का, गहराई की टोह लेने का प्रयास करना अच्छा होता है।
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सबसे महत्त्वपूर्ण वस्तु जो उसने उससे सीखी वह थी सुनना, शांत चित्त से एकाग्र होकर, प्रतीक्षा करते हुए, खुले मन से, बिना किसी आवेग के, बिना किसी इच्छा के, किसी तरह का निर्णय दिये बिना, बिना कोई धारणा बनाये।
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यह रहस्य नदी से ही सीखा था कि समय नाम की वस्तु नहीं है?"
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नदी एक ही समय में हर कहीं होती है, उद्गम पर और मुहाने पर, प्रपात पर, घाट पर, प्रवाहों पर, समुद्र में, पर्वतों पर, एक ही समय में हर कहीं, और उसके लिए केवल वर्तमान समय ही सबकुछ है, अतीत की छाया नहीं, भविष्य की छाया नहीं?"
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"कठोर" की तुलना में "कोमल" अधिक शक्तिशाली होता है, पानी चट्टान से अधिक शक्तिशाली होता है, प्रेम बलप्रयोग से कहीं अधिक शक्तिशाली होता है।
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वैसे भी क्या तुम अपने बेटे को संसार से बचा सकते हो? तुम कैसे बचा सकते हो?
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क्या तुमको लगता है कि तुम्हारा नन्हा-सा बालक शायद इसलिए बच जायेगा क्योंकि तुम उसको प्रेम करते हो, क्योंकि तुम उसको दुःख और पीड़ा और मोहभंग से दूर रखना चाहोगे? लेकिन तुम उसके हित में दस बार भी मर जाओ, तब भी तुम उसकी नियति के छोटे-से भी अंश को अपने हाथ में नहीं ले सकोगे।"
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यह वस्तु उसने नदी से सीखी थी, यह एक वस्तु : प्रतीक्षा, धीरज रखना, ध्यान देकर सुनना।
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अन्य तमाम सन्दर्भों में, सांसारिक लोग ज्ञानी लोगों से न केवल किसी तरह कम नहीं थे, बल्कि अक्सर उनसे कहीं श्रेष्ठ ठहरते थे, ठीक उसी तरह जैसे कि पशु भी, अन्ततः, किन्हीं - किन्हीं क्षणों में, आवश्यक कृत्यों के अपने कठोर, निर्मम निष्पादन के क्षणों में मनुष्यों की तुलना में श्रेष्ठ प्रतीत होते हैं।
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ये सारी वस्तुएँ मिलकर, सारी आवाज़ें, सारे लक्ष्य, सारी लालसाएँ, सारे दुःख, सारे सुख, सारे के सारे शुभ और अशुभ, यह सबकुछ मिलकर संसार बनता था।
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अपनी नियति से संघर्ष करना बन्द कर दिया, दुःख झेलना बन्द कर दिया। उसका चेहरा एक ऐसे ज्ञान की दीप्ति से खिला हुआ था, जिसका किसी भी इच्छा के साथ कोई विरोध नहीं रह जाता, जिसमें केवल पूर्णता का बोध होता है, जो घटनाओं के प्रवाह के साथ, जीवन की धारा के साथ, मैत्री रखता है, जो दूसरों की पीड़ा के प्रति सहानुभूति से भरा होता है, दूसरों के सुख के प्रति सहानुभूति से भरा होता है, प्रवाह के प्रति समर्पित, एकत्व का अंग।
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खोजने का अर्थ है : एक लक्ष्य का होना। लेकिन पाने का अर्थ है : मुक्त होना, खुला हुआ होना, किसी निर्धारित लक्ष्य का न होना। आप, श्रद्धेय, कदाचित, खोजी ही हैं, क्योंकि लक्ष्य की साधना में लगे रहते हुए बहुत-सी ऐसी वस्तुएँ होती हैं जिनको आप देखते नहीं हैं, जबकि वे सीधे-सीधे आपकी आँखों के सामने होती हैं।"
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प्रज्ञा का हस्तान्तरण सम्भव नहीं है। ऐसी प्रज्ञा जिसको कोई प्रबुद्ध व्यक्ति किसी अन्य को हस्तान्तरित करने का प्रयत्न करता है सदा मूर्खतापूर्ण वस्तु जैसी प्रतीत होती है।"
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ज्ञान तो दूसरे तक पहुँचाया जा सकता है, लेकिन प्रज्ञा नहीं। उसको केवल उपलब्ध किया जा सकता है, उसको जिया जा सकता है, उससे सम्मोहित हो जाना सम्भव है, उसके सहारे चमत्कार भी कदाचित किये जा सकते हैं, लेकिन उसको न तो शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है, न सिखाया जा सकता है।
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किसी भी सत्य को केवल तभी अभिव्यक्त किया जा सकता है और शब्दों में रखा जा सकता है जब वह एकपक्षीय होता है। ऐसी सारी बातें, जिनको सोचा जा सकता है और शब्दों में कहा जा सकता है, एकपक्षीय हैं; यह सब एकपक्षीय है, सबका सब मात्र आधा है, इस सब में पूर्णता का, चक्रीयता का, ऐक्य का अभाव है। जब सिद्धपुरुष गौतम जगत के बारे में उपदेश देते थे, तो उनको उसको संसार और निर्वाण के, माया और सत्य के, दुःख और मुक्ति के, दो हिस्सों में बाँटना पड़ता था।
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जगत और शाश्वतता के बीच, दुःख और परम आनन्द के बीच, पाप और पुण्य के बीच प्रतीत होने वाला अन्तर भी माया है।"
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सारे पाप पहले से ही अपने भीतर दैवीय क्षमा को धारण किये हुए हैं, सारे छोटे बच्चे पहले से ही अपने भीतर वृद्धों को धारण किये हुए हैं, समस्त शिशुओं में मृत्यु पहले से उपस्थित है, समस्त मरते हुए लोगों में शाश्वत जीवन उपस्थित है।
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एक लुटेरे और जुआरी के भीतर बुद्ध प्रतीक्षा कर रहे हैं; ब्राह्मण में लुटेरा प्रतीक्षा कर रहा है। गहरे ध्यान की अवस्था में समय को अस्तित्व-हीन कर देने की सम्भावना होती है, जो था, जो है, और जो होगा उस समस्त जीवन को एक ही समय में देखने की सम्भावना, और वहाँ सबकुछ शुभ है, सबकुछ पूर्ण है, सबकुछ ब्रह्म है। इसलिए जो कुछ भी है उस सब को मैं शुभ के रूप में देखता हूँ, मृत्यु मेरे लिए जीवन के समान है, पाप पुण्य के समान है, प्रज्ञा मूर्खता के समान है, प्रत्येक वस्तु को वही होना होता है जो वह है, अगर किसी वस्तु से मैं अपेक्षा करता हूँ कि वह मेरे लिए शुभ हो, वह मेरा हित करने के सिवा और कुछ न करे, वह मुझे किसी ...more
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मैं एक पत्थर से प्रेम कर सकता हूँ, गोविन्द, और एक वृक्ष या छाल के एक टुकड़े को भी। ये वस्तुएँ हैं, और वस्तुओं से प्रेम किया जा सकता है। लेकिन मैं शब्दों से प्रेम नहीं कर सकता। इसीलिए उपदेश मेरे लिए किसी काम के नहीं हैं, उनमें किसी तरह की कठोरता, किसी तरह की कोमलता, कोई रंग, कोई धारें, कोई गन्ध, कोई स्वाद नहीं होता, उनमें शब्दों के सिवा और कुछ नहीं होता। कदाचित उपदेश ही हैं जो तुमको शान्ति की प्राप्ति से दूर रखते हैं, कदाचित वे बहुत सारे शब्द ही हैं। क्योंकि मोक्ष और श्रेय भी, संसार और निर्वाण भी मात्र शब्द ही हैं, गोविन्द। ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो निर्वाण हो; केवल निर्वाण शब्द भर है।"