किसी झीने आवरण की तरह, हल्की-सी धुन्ध की तरह, थकान सिद्धार्थ पर छाती गयी, धीरे-धीरे, हर प्रतिदिन कुछ और गाढ़ी होती हुई, हर महीने कुछ और मलिन पड़ती हुई, हर वर्ष कुछ और भारी होती हुई। जैसे कोई नयी पोशाक समय के साथ पुरानी पड़ जाती है, समय के साथ अपनी रंगत खो देती है, उस पर सलवटें पड़ने लगती हैं, उसकी सिलाइयाँ उधड़ने लगती हैं, और वह जहाँ-तहाँ से जर्जर दिखायी देने लगती है, उसी तरह से सिद्धार्थ का नया जीवन, जो उसने गोविन्द से अलग हो जाने के बाद शुरू किया, पुराना पड़ता गया, जैसे-जैसे बरस बीतते गये, वह अपनी रंगत और चमक खोता गया, उस पर सलवटें और धब्बे उभरने लगे, और उसके तल में छिपी निराशा और वितृष्णा,
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