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सादगी भरा जीवन, चिन्तन का आनन्द, घण्टों ध्यान करना, अपने उस स्वत्व का, अपनी उस शाश्वत सत्ता का रहस्यमय बोध, जो न देह है न चेतना है। इसके बहुत-से अंश तब भी उसमें शेष थे, लेकिन एक के बाद एक वे अंश दबते चले गये थे, उन पर धूल जमा होती गयी थी।
किसी झीने आवरण की तरह, हल्की-सी धुन्ध की तरह, थकान सिद्धार्थ पर छाती गयी, धीरे-धीरे, हर प्रतिदिन कुछ और गाढ़ी होती हुई, हर महीने कुछ और मलिन पड़ती हुई, हर वर्ष कुछ और भारी होती हुई। जैसे कोई नयी पोशाक समय के साथ पुरानी पड़ जाती है, समय के साथ अपनी रंगत खो देती है, उस पर सलवटें पड़ने लगती हैं, उसकी सिलाइयाँ उधड़ने लगती हैं, और वह जहाँ-तहाँ से जर्जर दिखायी देने लगती है, उसी तरह से सिद्धार्थ का नया जीवन, जो उसने गोविन्द से अलग हो जाने के बाद शुरू किया, पुराना पड़ता गया, जैसे-जैसे बरस बीतते गये, वह अपनी रंगत और चमक खोता गया, उस पर सलवटें और धब्बे उभरने लगे, और उसके तल में छिपी निराशा और वितृष्णा,
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यह खेल वह अपने हृदय की पीड़ा के कारण खेलता था, इस खेल के माध्यम से अपने दुःखदायी पैसे को हारने और बर्बाद करने में उसको आक्रामक आनन्द प्राप्त होता था। कोई और विधि नहीं थी जिसके सहारे वह
वह बहुत गंभीरता के साथ कामना कर रहा था कि वह अपने बारे अब कुछ भी और न जाने, कि उसको चैन मिल जाए, कि वह मर जाए। काश कि उसके ऊपर बिजली गिर जाती और वह मर जाता! काश कि कोई बाघ उसको निगल जाता! काश कि कोई ऐसी मदिरा, कोई ऐसा विष होता जो उसकी इन्द्रियों को सुन्न कर देता, उसको विस्मृति के हवाले कर देता, उसको सुला देता, और फिर जागना न होता! क्या कोई ऐसी गन्दगी बची रह गयी थी जिसमें उसने स्वयं को लिप्त नहीं किया था, ऐसा कोई पाप या मूर्खतापूर्ण कृत्य जो उसने कर नहीं लिया था, आत्मा की ऐसी कोई श्रीहीनता जिसका उसने वरण नहीं कर लिया था? क्या इसके बाद भी जीवित बने रहना तनिक भी सम्भव रह गया था? क्या सम्भव रह गया
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सिद्धार्थ को गहरा झटका लगा था। तो स्थिति यहाँ तक आ पहुँची थी, तो वह पतन की इस पराकाष्ठा पर पहुँच चुका था, इस सीमा तक अपने रास्ते से भटक चुका था और सारे ज्ञान द्वारा इस सीमा तक तज दिया गया था, कि वह मृत्यु की कामना कर सका, कि इस इच्छा को, इस बचकानी इच्छा को, उसके भीतर बलवती होने की छूट मिल गयी थी कि अपनी देह का त्याग कर विश्रान्ति पा ली जाए! जो काम इन हाल के दिनों की समूची यन्त्रणा नहीं कर सकी थी, उद्वेगमुक्त करने वाले सारे बोध, सारी हताशाएँ नहीं कर सकी थीं, वह इस क्षण में घटित हो गया, जब ओ३म् ने उसकी चेतना में प्रवेश किया : वह स्वयं को, अपने विषाद और भूल को लेकर सजग हो उठा।
बहुत गहरी थी उसकी नींद और स्वप्न-विहीन, अरसा हो चुका था उसको ऐसी नींद को हासिल किए हुए। जब कई घण्टों बाद वह जागा, तो उसको लगा जैसे दस बरस बीत चुके हैं। उसने धीमे-धीमे बहते जल की कलकल सुनी; उसको इसकी सुध नहीं थी कि वह कहाँ पर है और कौन उसको वहाँ पर लाया है, उसने आँखें खोलीं, विस्मय के साथ देखा कि वहाँ वृक्ष थे और उसके ऊपर आकाश तना था, और उसको याद आया कि वह कहाँ पर था और वहाँ कैसे पहुँचा था। लेकिन इसमें उसको बहुत समय लगा, और अतीत उसको ऐसा प्रतीत हुआ मानो वह किसी आवरण से ढँका हुआ, अन्तहीन दूरी पर स्थित हो, अन्तहीन रूप से कहीं दूर, अन्तहीन रूप से अर्थहीन। वह केवल इतना जानता था उस पहले क्षण में जब
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दिया गया था, यहाँ तक कि उसने, जुगुप्सा और विषाद से भरकर, इस जीवन को उठाकर फेंक तक देने का मन बना लिया लिया था, लेकिन यह कि एक नदी के तट पर, नारियल के एक वृक्ष के नीचे, उसकी चेतना जागी थी, उसके होंठों से ओ३म् का पवित्र शब्द फूटा था, कि इसके बाद उसकी नींद लग गयी थी और अब वह जाग चुका है और नये मनुष्य की तरह संसार को देख रहा है। शांत चित्त से उसने उसी ओ३म् शब्द का मन ही मन उच्चारण किया, जिसका उच्चारण करते-करते उसकी नींद लग गयी थी, और उसको ऐसा प्रतीत हुआ कि उसकी यह समूची प्रदीर्घ निद्रा गहरे ध्यान में डूबकर किये गये ओ३म् के सुदीर्घ जाप के सिवा, ओम के चिन्तन के सिवा, और कुछ नहीं थी, ओम में, इस
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आज, इन कृत्यों ने उसको तज दिया है, अब इनमें से कोई भी उसका अपना नहीं रहा, न उपवास, न प्रतीक्षा, न ही चिन्तन। सबसे अधिक करुणाजनक बात यह थी कि उसने उनको तिलांजलि दे दी थी, उन वस्तुओं के लिए जो सबसे अधिक तीव्रता से फीकी पड़ जाने वाली हैं, ऐन्द्रिक वासना के लिए, सुखद जीवन के लिए, समृद्धि के लिए! सचमुच ही उसका जीवन विचित्र-सा रहा है। अब लगता है, वह एकबार फिर से एक बच्चे जैसा साधारण मनुष्य बन गया है। सिद्धार्थ ने इस परिस्थिति के बारे में सोचा। सोचना उसके लिए भारी पड़ रहा था, सचमुच ही सोचने को उसका मन नहीं कर रहा था, लेकिन उसने अपने को अनिच्छापूर्वक इस काम में लगाया। अब, उसने सोचा, चूँकि ये आसानी से
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हाँ, उसकी नियति विचित्र रही है! वह नीचे की ओर जा रहा था, और अब वह फिर से संसार का सामना कर रहा है, कोरा और नंगा और अज्ञानी। लेकिन वह इसको लेकर दुखी नहीं हो सका, नहीं, उल्टे उसकी स्वयं पर, इस विचित्र परिस्थिति पर, इस मूर्खतापूर्ण संसार पर तीव्रता से हँसने की इच्छा हुई।
उसने सोचा, सचमुच ही मेरा जीवन विचित्रताओं से भरा रहा है, इसने विचित्र मोड़ लिये हैं। जब मैं एक बालक था, मेरा सम्बन्ध केवल देवताओं और आहुतियों से हुआ करता था। जब मैं एक नवयुवक था, मेरा सम्बन्ध केवल इन्द्रियनिग्रह, चिन्तन और ध्यान से था, मैं ब्रह्म की खोज में लगा रहता था और शाश्वत आत्मा की उपासना करता था। लेकिन वयस्क होने
पर मैंने तपस्वियों का अनुसरण किया, जंगलों में निवास किया, भीषण गर्मी और ठिठुरन को सहा, भूखे रहना सीखा, अपनी देह को मर जाना सिखाया। इसके तुरन्त बाद ही महान बुद्ध के उपदेशों के रूप में मुझको अन्तर्दृष्टि प्राप्त हुई, मैंने अपने भीतर अपने ही रक्त की भाँति अपने चारों ओर चक्कर काटते जगत के एकत्व के ज्ञान का अनुभव किया। लेकिन मुझे बुद्ध का और उनकी महान प्रज्ञा का त्याग भी करना पड़ा। मैं कमला के पास गया और उससे प्रेम की कला सीखी, कामास्वामी से व्यापार की शिक्षा ली, धन का अम्बार लगाया, धन का अपव्यय किया, अपने उदर से प्रेम करना सीखा, अपनी इन्द्रियों को आनन्दित करना सीखा। मुझको अपनी ऊर्जा को खोने में,
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उसने अपने सीने में विलक्षण आनन्द का उछाह महसूस किया। कहाँ से, उसने अपने हृदय से सवाल किया, यह सुख तूने कहाँ से पाया है? क्या यह उस लम्बी, अविकल निद्रा से आया हो सकता है, जिसने मेरा भला किया है? या उस ओ३म् शब्द से जिसका मैंने उच्चारण किया था? या फिर इस तथ्य से कि मैं बच निकला हूँ, कि मैं पूरी तरह से भाग खड़ा हुआ हूँ, कि मैं एकबार फिर से स्वतन्त्र हूँ और आकाश...
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स्वच्छ और सुन्दर वायु है यहाँ, कितना सुखद है यहाँ साँस लेना! वहाँ, जहाँ से मैं भाग खड़ा हुआ था, वहाँ हर वस्तु से लेपों की, मसालों की, मदिरा की, भोगविलास की, मादकता की गन्ध आती थी। कितनी घृणा थी मुझको धनाढ्यों की उस दुनिया से, उन लोगों की दुनिया से जो सुस्वादु व्यंजनों में रस लेते थे, जुआरियों की उस दुनिया से! कितनी घृणा हो गयी थी मुझको अपने आप से उस घिनौनी दुनिया में इतने लम्बे समय तक बने रहने को लेकर! किस तरह मैंने स्वयं से घृणा की, स्वयं को वंचित किया, विष दिया, यातना दी, अपने आपको बूढ़ा और पापी बना डाला! नहीं, अब मैं यह सोचकर, जैसा सोचकर मुझको बहुत अच्छा लगा करता था, कि सिद्धार्थ बुद्धिमान
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उसको लगा, उसने अब तक, इन हाल के वर्षों और दिनों में, दुःख के एक टुकड़े को, यातना के एक टुकड़े को, उसका पूरी तरह से स्वाद लेकर थूका है, विषाद और मृत्यु की सीमा तक उसको निगला है। यह अच्छा था। सम्भव था कि वह कामास्वामी के साथ और भी लम्बे समय तक बना रहता, धन कमाता, धन का अपव्यय करता, अपना पेट भरता, और आपनी आत्मा को प्यास से मर जाने देता; सम्भव था कि वह इस चिकने-चुपड़े, अच्छी तरह से ढँके हुए नर्क में और अधिक समय तक बना रहता, अगर सम्पूर्ण हताशा और विषाद का यह क्षण, यह पराकाष्ठा का क्षण, न आया होता, जब वह इस उफनती हुई नदी के ऊपर झुका हुआ था और स्वयं को नष्ट कर देने के लिए तैयार हो गया था। अगर उसको
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"यह अच्छा है," उसने सोचा, "कि व्यक्ति उस हर वस्तु का स्वाद स्वयं ही चख ले, जिसको उसे जानना आवश्यक है। संसार और समृद्धि के प्रति वासना शुभ नहीं होती, यह बात तो मैं अपने बचपन में ही सीख चुका था। यह बात तो मैं लम्बे समय से जानता आया था, लेकिन इसका अनुभव मैंने अब जाकर किया है। अब मैं इसे जानता हूँ, केवल अपनी स्मृति में नहीं, बल्कि अपनी आँखों में, अपने हृदय में, अपने उदर में जानता हूँ। इसको जान लेना मेरे लिए शुभ ही है!"
बहुत देर तक वह अपने रूपान्तरण के बारे में सोचता रहा, उस पक्षी की पुकार को सुनता रहा जो आनन्दित होकर गा रहा था। क्या यह पक्षी मर नहीं गया था उसके भीतर, उसने अपनी मृत्यु को महसूस नहीं कर लिया था? नहीं, कोई और वस्तु थी जो उसके भीतर मर गयी थी, कोई और वस्तु जो अरसे से मरने की कामना करती रही थी। क्या वह यही वस्तु नहीं थी जिसको वह इन्द्रियनिग्रह के अपने उत्साहपूर्ण वर्षों में मारना चाहता था? क्या यह उसका स्वत्व ही नहीं था, उसका छोटा-सा, डरा हुआ, गर्वीला स्वत्व, जिसके साथ वह वर्षों संघर्ष करता रहा था, जो उसको बारबार पराजित करता रहा था, जो मार दिये जाने के बाद हर बार वापस उठ खड़ा होता था, उसको आनन्द से
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"क्या आप मुझको उस पार ले जाएँगे?" उसने पूछा। ऐसे वैभवशाली आदमी को अकेले और पैदल चलते देखकर हैरान मल्लाह ने, उसको अपनी नाव में बैठाया और नाव को तट से खींचने लगा। "बहुत सुन्दर जीवन का चुनाव किया है आपने अपने लिए," यात्री ने कहा। "बहुत आनन्ददायी होता होगा हर दिन इस पानी के पड़ोस में रहना और इस पर यात्रा करना।" पतवार चलाते आदमी ने दायें-बायें हिलना ज़ारी रखते हुए कहा : "बहुत सुन्दर है, श्रीमान, वैसा ही है जैसा आप कह रहे हैं। लेकिन सुन्दर क्या हरेक जीवन, हरेक काम नहीं होता?" "हो सकता है। लेकिन मुझे आपके काम से ईर्ष्या होती है।" "आह, आप जल्दी ही इसका आनंद लेना बन्द कर देंगे। यह सुन्दर वस्त्र पहनने
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देर तक चुप रहने के बाद सिद्धार्थ ने कहा : " दूसरी वस्तु कौन-सी, वासुदेव?" वासुदेव खड़ा हो गया। "देर हो गयी है," उसने कहा, "अब सोना चाहिए। वह दूसरी वस्तु मैं तुमको नहीं बता सकता, मेरे दोस्त। तुम उसे सीख जाओगे, या हो सकता है तुम्हें वह पहले से ही पता हो। देखो, मैं पढ़ा- -लिखा नहीं हूँ, मैं ठीक से यह भी नहीं जानता कि बोलना कैसे चाहिए, न ही मुझमें सोचने-विचारने की भी विशेष सामर्थ्य है। जो मैं कर सकता हूँ वह इतना ही है कि मैं सुन सकता हूँ, और उसमें श्रद्धा रख सकता हूँ। इसके अलावा मैंने और कुछ भी नहीं सीखा है। अगर मुझमें बोलने और सिखाने की योग्यता होती, तो मैं एक पण्डित होता, लेकिन इस रूप में तो मैं
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सबसे महत्त्वपूर्ण वस्तु जो उसने उससे सीखी वह थी सुनना, शांत चित्त से एकाग्र होकर, प्रतीक्षा करते हुए, खुले मन से, बिना किसी आवेग के, बिना किसी इच्छा के, किसी तरह का निर्णय दिये बिना, बिना कोई धारणा बनाये।
"क्या तुमने," एकबार उसने उससे पूछा, "क्या तुमने यह रहस्य नदी से ही सीखा था कि समय नाम की वस्तु नहीं है?" वासुदेव का चेहरा एक उज्ज्वल मुस्कराहट से भर उठा। "हाँ, सिद्धार्थ," वह बोला। "तुम्हारा आशय यही है न कि नदी एक ही समय में हर कहीं होती है, उद्गम पर और मुहाने पर, प्रपात पर, घाट पर, प्रवाहों पर, समुद्र में, पर्वतों पर, एक ही समय में हर कहीं, और उसके लिए केवल वर्तमान समय ही सबकुछ है, अतीत की छाया नहीं, भविष्य की छाया नहीं?" "हाँ," सिद्धार्थ ने कहा। " जब मैंने यह सीखा, तो मैंने अपने जीवन की ओर देखा, और वह भी एक नदी ही था, और केवल एक छाया ही थी जिसने बालक सिद्धार्थ को पुरुष सिद्धार्थ से और वृद्ध
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"कठोर" की तुलना में "कोमल" अधिक शक्तिशाली होता है, पानी चट्टान से अधिक शक्तिशाली होता है, प्रेम बलप्रयोग से कहीं अधिक शक्तिशाली होता है।
ये सारे गुण वे नहीं थे जो उस बालक का दिल जीत सकते। वह ऊबा हुआ था अपने पिता से, जिसने उसको अपनी इस दयनीय झोपड़ी में बंदी बनाकर रखा हुआ था, वह ऊबा हुआ था
यह वस्तु उसने नदी से सीखी थी, यह एक वस्तु : प्रतीक्षा, धीरज रखना, ध्यान देकर सुनना। वह बैठा रहा और सुनता रहा, रास्ते की धूल के बीच, थके और उदास ढंग से धड़कते अपने हृदय पर कान लगाये, वहाँ से किसी आवाज़ के आने की प्रतीक्षा करता हुआ।
कई घण्टों तक वह अपने घुटनों के बल बैठा रहा, सुनता हुआ, कोई भी और दृश्य न देखता हुआ, रिक्तता में गिरता हुआ, स्वयं को गिरने देता हुआ, कोई भी राह न देखता हुआ। जब उसको घाव में तीव्र जलन का अहसास होने लगा, तो उसने धीरे से ओ३म् का उच्चारण किया, स्वयं को ओ३म् से भर लिया। उपवन के भिक्षुओं ने उसको देखा, और चूँकि वह कई घण्टों अपने घुटनों के बल बैठा हुआ था, और धूल उसके श्वेत बालों पर जमा हो रही थी, उनमें से एक भिक्षु उसके पास आया और दो केले उसके पास रख गया। बूढ़े ने उसको नहीं देखा। इस समाधि की अवस्था से वह तब जागा जब एक हाथ ने उसके कन्धे को छुआ। उसी क्षण वह इस स्पर्श को पहचान गया, इस कोमल, सकुचाये स्पर्श
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सामंजस्य, जगत की शाश्वत परिपूर्णता का बोध, प्रसन्नभाव, एकत्व - ये वे वस्तुएँ थीं जो धीरे-धीरे उसमें पुष्पित - पल्लवित हो रही थीं,
एक दिन, जब घाव प्रचण्ड रूप से जल रहा था सिद्धार्थ लालसा से भर कर नदी-पार गया, नाव से उतरा और अपने बेटे की तलाश में शहर जाने का मन बनाने लगा। नदी धीमे-धीमे और शांत बह रही थी, यह सूखा मौसम था, लेकिन नदी की ध्वनि विचित्र तरह से आ रही थी; वह हँसी थी! वह स्पष्ट रूप से हँसी थी। नदी हँसी थी, इस बूढ़े मल्लाह पर खुलकर और स्पष्ट तौर पर हँसी थी। सिद्धार्थ रुक गया, वह पानी पर झुका, ताकि और भी बेहतर ढंग से सुन सके, और उसने शांत बहते जल में अपने चेहरे को प्रतिबिम्बित होते देखा, और इस प्रतिबिम्बित चेहरे में कुछ था, ऐसा कुछ जो उसको किसी ऐसी वस्तु की याद दिला रहा था जो वह भूल चुका था, और जैसे ही उसने उसके बारे
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जब वासुदेव तट पर के उस आसन से उठा, जब उसने सिद्धार्थ की आँखों में ज्ञान की दीप्ति देखी, उसने हल्के - से, अपने शांत और कोमल विधि से, अपने हाथ से उसके कन्धे को छुआ, और कहा : "मैं इसी घड़ी की प्रतीक्षा कर रहा था,
खोजने का अर्थ है : एक लक्ष्य का होना। लेकिन पाने का अर्थ है : मुक्त होना, खुला हुआ होना, किसी निर्धारित लक्ष्य का न होना। आप, श्रद्धेय, कदाचित, खोजी ही हैं, क्योंकि लक्ष्य की साधना में लगे रहते हुए बहुत-सी ऐसी वस्तुएँ होती हैं जिनको आप देखते नहीं हैं, जबकि वे सीधे-सीधे आपकी आँखों के सामने होती हैं।"
प्रज्ञा का हस्तान्तरण सम्भव नहीं है। ऐसी प्रज्ञा जिसको कोई प्रबुद्ध व्यक्ति किसी अन्य को हस्तान्तरित करने का प्रयत्न करता है सदा मूर्खतापूर्ण वस्तु जैसी प्रतीत होती है।"
"क्या तुम परिहास नहीं कर रहे हो?" गोविन्द ने पूछा। "मैं परिहास नहीं कर रहा हूँ। मैं तुमसे वह कह रहा हूँ जो मैंने पाया है। ज्ञान तो दूसरे तक पहुँचाया जा सकता है, लेकिन प्रज्ञा नहीं। उसको केवल उपलब्ध किया जा सकता है, उसको जिया जा सकता है, उससे सम्मोहित हो जाना सम्भव है, उसके सहारे चमत्कार भी कदाचित किये जा सकते हैं, लेकिन उसको न तो शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है, न सिखाया जा सकता है। यही वह बात है जिसको लेकर मेरे मन में, जब मैं युवा था तब भी, कभी-कभी सन्देह जागा करता था, जो मुझको गुरुओं से दूर ले गयी थी। मुझको एक विचार उपलब्ध हुआ है, गोविन्द, जिसको एकबार फिर तुम एक परिहास या मूर्खता समझोगे,
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प्रत्येक सच का विलोम उतना ही सच होता है! यह कुछ इस तरह है : किसी भी सत्य को केवल तभी अभिव्यक्त किया जा सकता है और शब्दों में रखा जा सकता है जब वह एकपक्षीय होता है। ऐसी सारी बातें, जिनको सोचा जा सकता है और शब्दों में कहा जा सकता है, एकपक्षीय हैं; यह सब एकपक्षीय है, सबका सब मात्र आधा है, इस सब में पूर्णता का, चक्रीयता का, ऐक्य का अभाव है। जब सिद्धपुरुष गौतम जगत के बारे में उपदेश देते थे, तो उनको उसको संसार और निर्वाण के, माया और सत्य के, दुःख और मुक्ति के, दो हिस्सों में बाँटना पड़ता था। इसको किसी और ढंग से किया ही नहीं जा सकता; जो व्यक्ति उपदेश देना चाहता है, उसके पास और कोई दूसरा ढंग नहीं है।
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गहरे ध्यान की अवस्था में समय को अस्तित्व-हीन कर देने की सम्भावना होती है, जो था, जो है, और जो होगा उस समस्त जीवन को एक ही समय में देखने की सम्भावना, और वहाँ सबकुछ शुभ है, सबकुछ पूर्ण है, सबकुछ ब्रह्म है। इसलिए जो कुछ भी है उस सब को मैं शुभ के रूप में देखता हूँ, मृत्यु मेरे लिए जीवन के समान है, पाप पुण्य के समान है, प्रज्ञा मूर्खता के समान है, प्रत्येक वस्तु को वही होना होता है जो वह है, अगर किसी वस्तु से मैं अपेक्षा करता हूँ कि वह मेरे लिए शुभ हो, वह मेरा हित करने के सिवा और कुछ न करे, वह मुझे किसी भी तरह की हानि न पहुँचा सके, तो इसके लिए इतना भर आवश्यक है कि मैं उसको इसकी स्वीकृति दूँ, उसकी
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