सहस्रिणोऽपि जीवन्ति जीवन्ति शतिनस्तथा। धृतराष्ट्र विमुञ्चेच्छां न कथञ्चिन्न जीव्यते।।82।। महाराज धृतराष्ट्र! जो हजारों कमाता है वह जीता है और जो सैकड़ों कमाता है वह भी जीता है। इसलिए अधिक की इच्छा न करें। यह न सोचें के अधिक नहीं होगा तो जीवन ही नहीं चलेगा।

