धूमायन्ते व्यपेतानि ज्वलन्ति सहितानि च। धृतराष्ट्रोल्मुकानीव ज्ञातयो भरतर्षभ।।60।। हे धृतराष्ट्र! जैसे एक अकेली लकड़ी जलने पर धुआँ देती है, लेकिन कई लकडि़याँ इकट्ठी होने पर तेजी से जलती हैं, इसी प्रकार कुल से अलग हुए संबंधी भी दुख उठाते हैं उनमें एकता होगी, तभी वे सुखी रहेंगे।

