असन्त्यागात् पापकृतामपापांस्तुल्यो दण्डः स्पृशते मिश्रभावात्। शुष्केणार्द्रंदह्यते मिश्रभावात्तस्मात्पापै सह सन्धि नकुर्य्यात्।।70।। दुर्जनों की संगति के कारण निरपराधी भी उन्हीं के समान दंड पाते हैं; जैसे सूखी लकडि़यों के साथ गीली भी जल जाती हैं। इसलिए दुर्जनों के साथ मैत्री नहीं करनी चाहिए।

