दो लोग [Do Log]
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सन् 47 दूर नहीं था, लेकिन आज़ादी अभी बहुत दूर नज़र आ रही थी। जैसे-जैसे आज़ादी की तारीख़ पास आ रही थी। आज़ादी और दूर होती लग रही थी।
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फ़ौजी कहता था : ‘‘खाते वो भी हैं लेकिन बराहेरास्त हाथ में कुछ नहीं लेते। वो तो रोटी का निवाला भी हाथ से मुँह में नहीं डालते। छुरी से काटते हैं और काँटे से उठा के मुँह में डालते हैं ! और दोनों कामों के लिए हिन्दुस्तानियों का इस्तमाल करते हैं। छुरी भी ! काँटा भी !’’
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लखबीरे को भी बात जायज़ लगी लेकिन... सोच में पड़ गया। हिन्दुस्तान में मेरा है क्या ? मैं अपना मुल्क छोड़ के क्यों दूसरों के मुल्क में जाऊँ ? पाकिस्तान तो पाकिस्तान सही। मेरा मुल्क तो यही है ! !
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उस रात फ़ौजी और लखबीरा, बड़ी देर तक छत पे पड़े जागते रहे। फ़ौजी ने आसमान के तारे देखते-देखते अचानक सवाल कर दिया। ‘‘बीरे ये बता, आज़ादी है क्या ?... कहाँ से आ रही है ?... किसके लिए आ रही है ?’’
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आसान नहीं था इस तरह अपनी जड़ें छोड़ कर चल देना। और उस पर ये भी पता नहीं था। कहाँ और कैसे बीजे जायेंगे। बीजे जायेंगे भी या नहीं। पेड़ से टूटी शाख़ों को अक्सर देखा था, धूप में सूखते, टूटते और फिर गर्द में रुल जाते ! !