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by
Tulsidas
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June 18, 2023
वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शङ्कररूपिणम् । यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते ।।३।। ज्ञानमय, नित्य, शङ्कररूपी गुरुकी मैं वन्दना करता हूँ, जिनके आश्रित होनेसे ही टेढ़ा चन्द्रमा भी सर्वत्र वन्दित होता है ।।३।।
यन्मायावशवर्त्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा यत्सत्त्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः । यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम् ।।६।। जिनकी मायाके वशीभूत सम्पूर्ण विश्व, ब्रह्मादि देवता और असुर हैं, जिनकी सत्तासे रस्सीमें सर्पके भ्रमकी भाँति यह सारा दृश्य-जगत् सत्य ही प्रतीत होता है और जिनके केवल चरण ही भवसागरसे तरनेकी इच्छावालोंके लिये एकमात्र नौका हैं, उन समस्त कारणोंसे पर (सब कारणोंके कारण और सबसे श्रेष्ठ) राम कहानेवाले भगवान् हरिकी मैं वन्दना करता हूँ ।।६।।
मूक होइ बाचाल पंगु चढ़इ गिरिबर गहन । जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन ।।२।।
मुद मंगलमय संत समाजू । जो जग जंगम तीरथराजू ।। राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा । सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा ।। संतोंका समाज आनन्द और कल्याणमय है, जो जगत्में चलता-फिरता तीर्थराज (प्रयाग) है। जहाँ (उस संतसमाजरूपी प्रयागराजमें) रामभक्तिरूपी गङ्गाजीकी धारा है और ब्रह्मविचारका प्रचार सरस्वतीजी हैं ।।
मति कीरति गति भूति भलाई । जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई ।। सो जानब सतसंग प्रभाऊ । लोकहुँ बेद न आन उपाऊ ।। उनमेंसे जिसने जिस समय जहाँ कहीं भी जिस किसी यत्नसे बुद्धि, कीर्ति, सद्गति, विभूति (ऐश्वर्य) और भलाई पायी है, सो सब सत्संगका ही प्रभाव समझना चाहिये। वेदोंमें और लोकमें इनकी प्राप्तिका दूसरा कोई उपाय नहीं है ।
बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ । जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ ।। पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें । उजरें हरष बिषाद बसेरें ।।
अब मैं सच्चे भावसे दुष्टोंको प्रणाम करता हूँ, जो बिना ही प्रयोजन, अपना हित करनेवालेके भी प्रतिकूल आचरण करते हैं। दूसरोंके हितकी हानि ही जिनकी दृष्टिमें लाभ है, जिनको दूसरोंके उजड़नेमें हर्ष और बसनेमें विषाद होता है ।
पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं । जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं ।। बंदउँ खल जस सेष सरोषा । सहस बदन बरनइ पर दोषा ।। जैसे ओले खेतीका नाश करके आप भी गल जाते हैं, वैसे ही वे दूसरोंका काम बिगाड़नेके लिये अपना शरीरतक छोड़ देते हैं। मैं दुष्टोंको [हजार मुखवाले] शेषजीके समान समझकर प्रणाम करता हूँ, जो पराये दोषोंका हजार मुखोंसे बड़े रोषके साथ वर्णन करते हैं
मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा । तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा ।। बायस पलिअहिं अति अनुरागा । होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा ।। मैंने अपनी ओरसे विनती की है, परन्तु वे अपनी ओरसे कभी नहीं चूकेंगे। कौओंको बड़े प्रेमसे पालिये; परन्तु वे क्या कभी मांसके त्यागी हो सकते हैं? ।
भलेउ पोच सब बिधि उपजाए । गनि गुन दोष बेद बिलगाए ।। कहहिं बेद इतिहास पुराना । बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना ।। भले, बुरे सभी ब्रह्माके पैदा किये हुए हैं, पर गुण और दोषोंको विचारकर वेदोंने उनको अलग-अलग कर दिया है। वेद, इतिहास और पुराण कहते हैं कि ब्रह्माकी यह सृष्टि गुण-अवगुणोंसे सनी हुई है ।।
अस बिबेक जब देइ बिधाता । तब तजि दोष गुनहिं मनु राता ।। काल सुभाउ करम बरिआईं । भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं ।। विधाता जब इस प्रकारका (हंसका-सा) विवेक देते हैं, तब दोषोंको छोड़कर मन गुणोंमें अनुरक्त होता है। काल-स्वभाव और कर्मकी प्रबलतासे भले लोग (साधु) भी मायाके वशमें होकर कभी-कभी भलाईसे चूक जाते हैं ।।१।।
करन चहउँ रघुपति गुन गाहा । लघु मति मोरि चरित अवगाहा ।। सूझ न एकउ अंग उपाऊ । मन मति रंक मनोरथ राऊ ।। मैं श्रीरघुनाथजीके गुणोंका वर्णन करना चाहता हूँ, परन्तु मेरी बुद्धि छोटी है और श्रीरामजीका चरित्र अथाह है। इसके लिये मुझे उपायका एक भी अंग अर्थात् कुछ (लेशमात्र) भी उपाय नहीं सूझता। मेरे मन और बुद्धि कंगाल हैं, किन्तु मनोरथ राजा है ।।
निज कबित्त केहि लाग न नीका । सरस होउ अथवा अति फीका ।। जे पर भनिति सुनत हरषाहीं । ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं ।। रसीली हो या अत्यन्त फीकी, अपनी कविता किसे अच्छी नहीं लगती? किन्तु जो दूसरेकी रचनाको सुनकर हर्षित होते हैं, ऐसे उत्तम पुरुष जगत्में बहुत नहीं हैं, ।।
खल परिहास होइ हित मोरा । काक कहहिं कलकंठ कठोरा ।। हंसहि बक दादुर चातकही । हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही ।। किन्तु दुष्टोंके हँसनेसे मेरा हित ही होगा। मधुर कण्ठवाली कोयलको कौए तो कठोर ही कहा करते हैं। जैसे बगुले हंसको और मेढक पपीहेको हँसते हैं, वैसे ही मलिन मनवाले दुष्ट निर्मल वाणीको हँसते हैं ।।
जदपि कबित रस एकउ नाहीं । राम प्रताप प्रगट एहि माहीं ।। सोइ भरोस मोरें मन आवा । केहिं न सुसंग बड़प्पनु पावा ।। यद्यपि मेरी इस रचनामें कविताका एक भी रस नहीं है, तथापि इसमें श्रीरामजीका प्रताप प्रकट है। मेरे मनमें यही एक भरोसा है। भले संगसे भला, किसने बड़प्पन नहीं पाया? ।।
कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ । मति अनुरूप राम गुन गावउँ ।। कहँ रघुपति के चरित अपारा । कहँ मति मोरि निरत संसारा ।। मैं न तो कवि हूँ, न चतुर कहलाता हूँ; अपनी बुद्धिके अनुसार श्रीरामजीके गुण गाता हूँ। कहाँ तो श्रीरघुनाथजीके अपार चरित्र, कहाँ संसारमें आसक्त मेरी बुद्धि! ।
जेहिं मारुत गिरि मेरु उड़ाहीं । कहहु तूल केहि लेखे माहीं ।। समुझत अमित राम प्रभुताई । करत कथा मन अति कदराई ।। जिस हवासे सुमेरु-जैसे पहाड़ उड़ जाते हैं, कहिये तो, उसके सामने रूई किस गिनतीमें है। श्रीरामजीकी असीम प्रभुताको समझकर कथा रचनेमें मेरा मन बहुत हिचकता है—
सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान । नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरंतर गान ।।१२।। सरस्वतीजी, शेषजी, शिवजी, ब्रह्माजी, शास्त्र, वेद और पुराण—ये सब ‘नेति-नेति’ कहकर (पार नहीं पाकर ‘ऐसा नहीं’, ‘ऐसा नहीं’ कहते हुए) सदा जिनका गुणगान किया करते हैं ।।१२।।

