प्रत्येक मनुष्य कभी न कभी कुछ ही पलों या क्षणों के लिए ही सही, किसी न किसी का ईश्वर हुआ करता है। ऐसा एक नहीं, कई बार हो सकता है। आख़िर ईश्वर है क्या? मनुष्य के श्रेष्ठतम का प्रकाश ही तो? और यह प्रकाश प्रत्येक मनुष्य के भीतर होता है। लेकिन फूटता तभी है जब किसी को कातर, बेबस, निरुपाय और प्रताड़ित देखता है। मैं भी था ईश्वर। हाँ, मेरी अवधि किन्हीं कारणों से थोड़ी लम्बी खिंच गई रही होगी।... चलो अब।’

