टोपी शुक्ला
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Read between November 6 - November 11, 2021
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यह टुच्चा युग है । छोटे लोग जन्म ले रहे हैं । सौन्दर्य पर रंग-रंग की कीचड़ है । न तो वीरों की गाथा का समय है और न श्रृंगार रस बाँटने का । कोई युग कलयुग नहीं होता ।
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मैं हिन्दू-मुसलिम भाई-भाई की बात नहीं कर रहा हूँ । मैं यह बेवक़ूफ़ी क्यों करूँ ! क्या मैं रोज़ अपने बड़े या छोटे भाई से यह कहता हूँ कि हम दोनों भाई-भाई हैं ? यदि मैं नहीं कहता तो क्या आप कहते हैं ? हिन्दू-मुसलमान अगर भाई-भाई हैं तो कहने की ज़रूरत नहीं । यदि नहीं हैं तो कहने से क्या फ़र्क पड़ेगा ।
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एक सच्चे भारतीय और एक सच्चे हिन्दू की तरह वह मुसलमानों से नफ़रत करने लगा ।
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नफ़रत ! यह शब्द कैसा अजीब है ! नफ़रत ! यह एक अकेला शब्द राष्ट्रीय आन्दोलन का फल है । बंगाल, पंजाब और उत्तर प्रदेश के इन्कलाबियों की लाशों की क़ीमत केवल एक शब्द है–नफ़रत ! नफ़रत ! शक ! डर !
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नौकरी ! यह शब्द हमारी आत्मा के माथे पर ख़ून से लिखा हुआ है । यह शब्द ख़ून बनकर हमारी रगों में दौड़ रहा है । यह शब्द ख़्वाब बनकर हमारी नींद की हतक कर रहा है । हमारी आत्मा नौकरी के खूँटे से बँधी हुई लिपि की नाँद में चारा खा रही है ।
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"सवाल हिन्दी-उर्दू या हिन्दू-मुसलमान का नहीं है बलभद्र !" इफ़्फ़न ने कहा, "सवाल है नौकरी का । अब लड़कियाँ लड़कों से शादी नहीं करतीं । लड़के तो सिर्फ़ इश्क़ करने के लिए होते हैं । शादी तो नौकरी से की जाती है । प्यार अब तनख़ाह के गज़ से नापा जाता है और सोशल पोज़ीशन की तराज़ू में तोला जाता है । तुम सलीमा की बात कर रहे हो । अरे, तुमसे कोई लड़की शादी नहीं करेगी ।..."
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