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Kindle Notes & Highlights
"सर ! मुगल बादशाहों ने भारत की प्राचीन सभ्यता को भ्रष्ट किया । मुसलमान सम्राटों का युग भारतीय सभ्यता का काला युग है । क्या प्राचीन मन्दिरों जैसी सुन्दर कोई एक मसजिद बन सकी ? इसी इंफिरिआर्टी काम्पलेक्स के कारण औरंगज़ेब ने मन्दिर गिरवाए..." इफ़्फ़न उस लड़के का मुँह देखता रह गया । परन्तु वह इतिहास का टीचर था । उसे कुछ-न-कुछ तो कहना ही था । "जब अछूतों के कान में पिघला हुआ सीसा डाला जा रहा था तो क्या ऊँची जात के हिन्दू इंफ़िरिआर्टी काम्प्लेक्स में थे..." पूरा घण्टा इसी बहस में खत्म हो गया । न चन्द्रबली ने इफ़्फ़न की बात मानी और न इफ़्फ़न ने चन्द्रबली की । परन्तु उस शाम को इफ़्फ़न बहुत उदास लौटा ।
हमारे पास कोई ख़्वाब नहीं है । मगर इनके पास तो झूठे ख़्वाब हैं
देखिए बात यह है कि पहले ख़्वाब केवल तीन तरह के होते थे–बच्चों का ख़्वाब, जवानों का ख़्वाब और बूढ़ों का ख़्वाब । फिर ख़्वाबों की इस फ़ेहरिस्त में आज़ादी के ख़्वाब भी शामिल हो गए । और फिर ख़्वाबों की दुनिया में बड़ा घपला हुआ । माता-पिता के ख़्वाब बेटे-बेटियों के ख़्वाबों से टकराने लगे । पिताजी बेटे को डॉक्टर बनाना चाहते हैं, और बेटा कम्युनिस्ट पार्टी का होल टाइमर बनकर बैठ जाता है । केवल यही घपला नहीं हुआ । बरसाती कीड़ों की तरह भाँति-भाँति के ख़्वाब निकल आए । क्लर्कों के ख़्वाब । मज़दूरों के ख़्वाब । मिल-मालिकों के ख़्वाब । फ़िल्म स्टार बनने के ख़्वाब । हिन्दी ख़्वाब । उर्दू ख़्वाब । हिन्दुस्तानी
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परतु क्राइसिस यह है कि किसी को ख़्वाबों के इस क्राइसिस का पता ही नहीं है क्योंकि अपने ख़याल में सब कोई-न-कोई ख़्वाब देख रहे हैं ।
और तीसरी बात यह थी कि वह जानना चाहता था कि हिन्दुस्तान का मुसलमान नवयुवक किस प्रकार सोचता है और किस रंग के ख्वाब देखता है ।
"इसका छोटा भाई होनेवाला था और नौकरानी ने पूछा कि भाई चाहते हो या बहन ? तो इन्होंने पूछा, साइकिल नहीं हो सकती ।"
इतने ज़ोर का क़हक़हा पड़ा कि 'केफ़े डी फ़ूँस' की छत हिल गई और एक मेज़ पर बैठी शक्कर के दाने चुनती हुई चिड़िया घबराकर उड़ गई ।
"फ़िर नहीं फिर ।" इफ़्फ़न ने दाँत पीसकर कहा । टोपी खिलखिलाकर हँस पड़ा । कई दीवारें गिर गई । कई डर ख़त्म हो गए । कई प्रकार के अकेलेपन दूर हो गए
इफ़्फ़न हिन्दुओं से डरता था और इसलिए उनसे नफ़रत करता था । टोपी को भारत की प्राचीन संस्कृति से प्यार हो गया था, इसलिए वह मुसलमानों से नफ़रत करता था–परन्तु दोनों उदास हो गए
नफ़रत की दीवार पर चढ़कर पुरानी दोस्ती ने जो झाँकना शुरू किया तो दोनों उदास हो गए । पल-भर में बीते हुए दिन दोबारा गुज़रे । सारी बातें, सारी यादें, सारे नारे...दोनों ने अपनी बरसों की यात्रा फिर की और यह देखकर दोनों उदास हो गए कि घाटे में वे दोनों ही रहे । हिपोक़ेसी के जंगल में दो परछाइयों ने अपने-आपको अकेला पाया तो दोनों लिपट गईं
"जो मैं न खाता तो क्या बरतन न धुलते ?" टोपी ने पूछा, "यही तो गन्दापन है मुसलमानों का ।" सकीना दाँत पीसकर रह गई ।
हर कन्धे और पीठ पर आँखें उग आई थीं । परछाइयाँ हिन्दू-मुसलमान बन गई थीं और आदमी अपनी ही परछाइयों से डरकर भाग रहा था । टूटे हुए ख़्वाबों के रेज़े शीशे की किर्चिंयों की तरह तलवों में चुभ रहे थे । परन्तु वह दर्द से चीख़ नहीं सकता था ।
दोनों शब्दों का अर्थ एक ही है । इन शब्दों की आवाज़ें एक-दूसरे से फिर भी टकरा रही थीं । महेश मनुष्य था । उसे आदमियों ने मार डाला । सय्यद आबिद रज़ा आदमी थे । उन्हें मनुष्यों ने मार डाला
नफ़रत ! यह शब्द कैसा अजीब है ! नफ़रत ! यह एक अकेला शब्द राष्ट्रीय आन्दोलन का फल है । बंगाल, पंजाब और उत्तर प्रदेश के इन्कलाबियों की लाशों की क़ीमत केवल एक शब्द है–नफ़रत ! नफ़रत ! शक ! डर ! इन्हीं तीन डोंगियों पर हम नदी पार कर रहे हैं । यही तीन शब्द बोए और काटे जा रहे हैं । यही शब्द धूल बनकर माँओं की छातियों से बच्चों के हलक़ में उतर रहे हैं । दिलों के बन्द किवाड़ों की दराज़ों में यही तीन शब्द झाँक रहे हैं । आवारा रूहों की तरह ये तीन शब्द आँगनों पर मँडरा रहे हैं । चमगादड़ों की तरह पर फड़फड़ा रहे हैं और रात के सन्नाटे में उल्लुओं की तरह बोल रहे हैं । काली बिल्ली की तरह रास्ता काट रहे हैं ।
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"टोपी, खुदा के वास्ते मेरी बच्ची की ज़बान ख़राब न करो ।" सकीना ने घिघियाकर कहा । "तुम्हारे खुदा के लिए मैं कोई काम क्यों करूँ ?" टोपी ने प्रश्न किया । "अरे, उन्हें तो मैंने पाकिस्तान भेज दिया है ।" "अंकल टोपी हिन्दू हैं ।" शबनम ने ताली बजाकर यूँ कहा जैसे हिन्दू होना कोई बेवक़ूफी हो ।
टोपी, तुम हिन्दू क्यों हो–या फिर मैं मुसलमान क्यों हूँ ? क्यों ? यह भी कितना अजीब शब्द है । मनुष्य को जवाब देने पर मजबूर कर देता है । परन्तु अगर किसी के पास जवाब ही न हो तो ? तो वह क्या करे आख़िर ?
"तुम मुसलमानों से नफ़रत करते हो । सकीना हिन्दुओं से घिन खाती है । मैं...मैं डरता हूँ शायद । हमारा अंजाम क्या होगा बलभद्र ? मेरे दिल का डर, तुम्हारे और सकीना के दिल की नफ़रत–ये क्या इतनी अटल सच्चाइयाँ हैं कि बदल ही नहीं सकतीं ? हिस्ट्री का टीचर कल क्या पढ़ाएगा ? वह इस सूरते-हाल को कैसे एक्सप्लेन करेगा कि मैं तुमसे डरता था और तुम मुझसे नफ़रत करते थे । फिर भी हम दोस्त थे । मैं तुम्हें मार क्यों नहीं डालता ? तुम मुझे क़त्ल क्यों नहीं कर देते ? कौन हमारे हाथ थाम रहा है ? मैं हिस्ट्री नहीं पढ़ा सकता । मैं रिज़ाइन कर दूँगा ।" "यह कोई बहुत अकलमन्दी की बात नहीं करोगे ।" "मगर..." "भाई !" टोपी ने उसे टोक
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भाई हर मुसलमान के दिल में पाकिस्तान की ओर एक खिड़की खुली हुई है ।" "फिर मैं पाकिस्तान क्यों नहीं गया ?" टोपी के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था । हाँ, फिर यह इफ़्फ़न पाकिस्तान क्यों नहीं गया ? चार-साढ़े चार करोड़ मुसलमान यहाँ क्या कर रहे हैं ? मेरे पड़ोसी कबीर अहमद ने नया घर क्यों बनवाया है ?... "परन्तु मुसलमान पाकिस्तान की हॉकी टीम के जीतने की खुशी क्यों मनाते हैं ?" "यह सवाल यूँ भी किया जा सकता है कि हिन्दुस्तान की हॉकी टीम में मुसलमान क्यों नहीं होते ? क्या मुसलमान हॉकी खेलना भूल गए हैं ?" "नहीं । परन्तु इसका डर लगा रहता है कि वह पाकिस्तान से मिल जाएँगे ।" डर ! तो यह डर दोनों तरफ़ है ।
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"मुसलमानों की वफ़ादारी देखने के लिए हम अपना गोल्ड मेडिल तो नहीं खो सकते ना ?" "मगर फिर दूसरी शक्ल क्या है ?" "फ़रज़ करो कि हॉकी नहीं युद्ध हो रहा है । यदि हम मुसलमानों की वफ़ादारी देखने के लिए उन्हें फौज़ में लें और वे पाकिस्तान से मिल जाएँ तो यह इम्तहान किसे महँगा पड़ेगा ?" इस लॉजिक ने टोपी का जी खुश कर दिया । यह शक ही ठीक है । यह नफ़रत ही ठीक है । अधिक-से-अधिक यही होता है न कि बलवे होते रहते हैं । सौ-दो सौ आदमी मारे जाते हैं ।... "सौ-दो सौ आदमियों की जान बचाने के लिए हम अपनी इंडिपेंडेंस को ख़तरे में नहीं डाल सकते ।"
प्रश्न हमारा पीछा नहीं छोड़ते । मनुष्य मौत को जीत सकता है, परन्तु प्रश्न को नहीं जीत सकता । कोई-न-कोई प्रश्न दुम के पीछे लगा ही रहता है...
सुना जाता है कि पहले ज़मानों में नौजवान, मुल्क जीतने, लम्बी और कठिन यात्राएँ करने, खानदान का नाम ऊँचा करने के ख़्वाब देखा करते थे । अब वे केवल नौकरी का ख़्वाब देखते हैं । नौकरी ही हमारे युग का सबसे बड़ा ऐडवेंचर है ! आज के फ़ाहियान और इब्ने-बतूता, वासकोडिगामा और स्काट, नौकरी की खोज में लगे रहते हैं । आज के ईसा, मोहम्मद और राम की मंज़िल नौकरी है
पहले दिलों के बीच में बादशाह आया करते थे । अब नौकरी आती है । हर चीज़ की तरह मोहब्बत भी घटिया हो गई है ।
बदनामी का यह पहला पत्थर था जो उसके माथे पर लगा । वह जाने कब से उस पत्थर की राह देख रही थीं । यह पत्थर जो लगा तो सोया हुआ बदन जाग उठा ।
इम्तिहान के दिनों में इश्क़ हिन्दुस्तानी फ़िल्मों के सिवा और कहाँ हो सकता है !
इस्मत चुग़ताई की 'टेढ़ी लकीरें' अभी तक बिलकुल सिधी नहीं हुई हैं !
जिस लड़की ने यह बात कही उसका नाम महनाज़ था । मामूली शक्ल-सूरत की लड़की थी । पाँच-छह साल पहले जवान हुई थी । लेक्चरर थी । परन्तु वह जिसे पसन्द करती उसे कोई और लड़की हथिया लेती और वह फिर अकेली रह जाती । उसके लेटेस्ट आशिक़ डॉक्टर वहीद ने अभी कुछ दिनों पहले डॉक्टर शौकत फ़ारूक़ी से शादी कर ली थी–डॉक्टर मिस फ़ारूक़ी से ! (यह बताना ज़रूरी है कि मिस फ़ारूक़ी औरत थीं) ।
असल में बेरोज़गारी की समस्या इतनी गम्भीर हो गई है कि हर नवयुवक केवल नेता बनने के ख़्वाब देख सकता है
मुसलमान लड़कों के दिलों में दाढ़ियाँ और हिन्दू लड़कों के दिलों में चोटियाँ उगने लगीं । यह लड़के फ़िजिक्स पढ़ते हैं और कापी पर ओ३म् या बिसमिल्लाह लिखे बिना सवाल का जवाब नहीं लिखते !
हर तरफ़ फैले हुए अँधेरे का बोझ उसकी आत्मा पर पड़ रहा था । फिर अँधेरे का एक टुकड़ा उसकी आँख में पड़ गया । आँख़ें मलता हुआ वह अपनी सीट की तरफ़ चल पड़ा
जब वह कम्युनिस्ट पार्टी का मेम्बर हो गया तब भी कई बातों पर उसका विरोध जस-का-तस रहा । वह पार्टी को इस बात पर माफ़ नहीं कर सकता था कि उसने जंग में अंग्रेज़ों का और पाकिस्तान के बारे में मुसलिम लीग का साथ दिया था
आप कथाकार से यह प्रश्न न करें कि सलीमा की बात उसने इतनी देर के बाद क्यों छेड़ी । सलीमा की बात छेड़ने का अवसर यही है । मैं कोई आपको टोपी और सलीमा की प्रेम-कहानी तो सुना नहीं रहा हूँ । परन्तु इस समय जहाँ हम हैं वहा सलीमा की बात निकाले बिना काम नहीं चल सकता । यदि ऐसा न होता तो मैं आपको सलीमा की बात ही न बताता । कथाकार का कर्तव्य यह नहीं है कि वह अपने हीरो के विषय में सब-कुछ ही बता डाले
सारी ज़िन्दगी बड़ी बोरिंग होती है । कथाकार यह बोरिंग हिस्से छाँट देता है । जो अपने पात्रों के जीवन के बोरिंग हिस्से न काट सके वह कथाकार नहीं है । कथाकारी की कला सुनने से ज़्यादा न सुनाने की कला है
अगर ऐसा होता तो प्रेमचन्द के 'मैदाने-अमल' का अंजाम कुछ और ही होता ।
उसे मालूम था कि ऐसे ख़त केवल सस्ती कहानियों में लिखे जाते हैं । जीवन में इस प्रकार के ख़तों की कोई गुंजायश नहीं है । परन्तु यह ख़त लिखकर सीने का बोझ हलका हो गया । यह बात बरसों से उसके हलक़ में फँसी हुई थी । वह लेट गया और सलीमा के बारे में सोचने लगा ।
लाश ! यह शब्द कितना घिनौना है ! आदमी अपनी मौत से, अपने घर में, अपने बाल-बच्चों के सामने मरता है तब भी बिना आत्मा के उस बदन को लाश ही कहते हैं और आदमी सड़क पर किसी बलवाई के हाथों मारा जाता है, तब भी बिना आत्मा के उस बदन को लाश ही कहते हैं । भाषा कितनी ग़रीब होती है ! शब्दों का कैसा ज़बरदस्त काल है !
"जिस देश की यूनिवर्सिटी में यह सोचा जा रहा हो कि ग़ालिब सुन्नी थे या शीया और रसखान हिन्दू थे या मुसलमान, उस देश में पढ़ाने का काम नहीं करूँगा ।"
उसने यह चाहा कि उसकी माँ के यहाँ एक साइकिल हो जाए तो उसके यहाँ भैरव हो गया । उसने चाहा कि सकीना उसे राखी बाँध दे तो वह जम्मू चली गई । उसने चाहा कि सलीमा से उसकी शादी हो जाए तो अपना थीसिस लिखवाकर सलीमा ने किसी साजिद ख़ाँ से ब्याह कर लिया । उसने एक नौकरी चाही तो कहीं हिन्दू होने के कारण नहीं मिली, कहीं मुसलमान होने के कारण । एक आदमी के कितने टुकड़े हो सकते हैं
जीवनी और उपन्यास में एक फ़र्क़ है । जीवनी का लेखक अपनी कथा में अपनी ओर से कुछ नहीं जोड़ सकता । वह घटनाओं की तरतीब भी नहीं बदल सकता । परन्तु उपन्यासकार अपने हिसाब से घटनाओं को तरतीब देता है
वह डॉक्टर भृगु नारायण शुक्ला नीले तेल वाले और रामदुलारी की क्रिएशन था । और चूँकि वह 'फिर' को 'फ़िर' और 'फ़ौरन' को 'फौरन' कहा करता था, इसलिए यदि मैं उसकी बोलचाल को सुधार देता तो यह जीवनी के साथ बेईमानी होती । इसीलिए जीवनी लिखना उपन्यास लिखने से ज़्यादा टेढ़ा काम है ।
सलीमा शर्म से ज़मीन में गड़ गई ।
हमारी आत्मा नौकरी के खूँटे से बँधी हुई लिपि की नाँद में चारा खा रही है ।
अब लड़कियाँ लड़कों से शादी नहीं करतीं । लड़के तो सिर्फ़ इश्क़ करने के लिए होते हैं । शादी तो नौकरी से की जाती है
टोपी को वाजिद की यही अदा पसन्द थी । वह बड़ी-से-बड़ी बात पर एक गाली की मिट्टी डालकर जी हल्का कर लेने की कला जानता था । इसीलिए इफ़्फ़न को सी ऑफ़ करने के बाद टोपी कैंटीन गया कि शायद उसकी उदासी वाजिद की एक गाली में डूब जाए