Dharmendra Chouhan

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जब मैंने किताब को खोला और उसे पढ़ने की कोशिश की तो एक बार फिर निराशा, घबराहट और ग़ुस्से ने मुझे अपनी गिरफ़्त में ले लिया। यह पहले की तरह ही था। कुछ नहीं बदला था। प्रचंड ग़ुस्से में मैंने एक बार फिर रीडिंग लैंप को उठाया और घुमाकर कमरे में फेंक दिया।