मेरा तो खाने का भी दिल नहीं करता था लेकिन मेरे माता-पिता ज़बर्दस्ती खिलाते थे। बस उन्हें संतुष्ट करने के लिए मैं खा लेती थी, इतना थोड़ा सा कि बस मेरा शरीर चलता रहे। मैं चाहती थी कि सब कुछ बस ख़त्म हो जाए। मैं अब इस हालत में नहीं रहना चाहती थी। मैं थक गई थी। मैं हार गई थी। मैं टूट भी गई थी।