ज़िंदगी वो जो आप बनाएं: प्यार, आशा और विश्वास की ऐसी कहानी जिसने नियति को हरा दिया [Zindagi Wo Jo Aap Banaayen]
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क्या मैडिकल स्कूल दूसरों के दर्द को महसूस करना या दूसरे की जगह पर खुद होना सिखाता है?
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मैंने जितने भी डॉक्टरों से बात की है, उनमें से ज़्यादातर वैयक्तिक और भावशून्य थे। उन्हें ऐसा ही होने का प्रशिक्षण दिया जाता है। मुझे नहीं लगता कि यह डॉक्टर उन सबसे भिन्न होगा।
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शायद वे मुझे चिट्ठियां इसलिए लिखने देते थे कि कोई देखेगा नहीं, जबकि फिल्म या आइसक्रीम के लिए जाने का मतलब होता कि लोग देखते और बातें बनाते।
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सबको अपनी लपेट में ले लिया। वह उत्तेजित दिख रही थी।
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पदाधिकारी होने का मतलब था चयन, प्रतियोगिताओं, परीक्षणों, परिवहन के प्रबंध और इस सबके बेहतरीन पहलू--पदक बटोरकर लाने--का प्रचंड बवंडर।
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कभी-कभी अंतिम पल में लिए गए फ़ैसलों में इतनी ताक़त होती है कि वे आगे होने वाली तमाम घटनाओं की श्रृंखला को प्रभावित कर सकते हैं। लेकिन उन फ़ैसलों को लेने के वक़्त उन पर बहुत विचार नहीं किया जाता है। उन्हें सामान्य ढंग से ले लिया जाता है और पीछे मुड़कर देखने पर उन पर बहुत ज़्यादा पछतावा और मलाल होता है
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जब तक लड़कियां पदक जीतकर कॉलेज लाती रहीं, उन्हें सिर-आंखों पर बिठाया जाता रहा। जब तक वे ‘उपयोगी’ रहीं और ‘परफ़ॉर्म’ करती रहीं, सब कुछ अच्छा था। लेकिन जिस पल हालात थोड़ा सा बिगड़े, उन्हें दूध में से मक्खी की तरह निकाल फेंका गया।
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मुझे लगता है प्रवेश परीक्षाएं ज़्यादातर इससे जुड़ी होती हैं कि उस ख़ास दिन कोई बंदा कैसा काम करता है। बेशक, इसके लिए कड़ी मेहनत और प्रतिभा की ज़रूरत होती है, लेकिन मुख्य रूप से इसके लिए क़िस्मत भी चाहिए होती है।
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वह जज़्बाती मूर्ख था। मेरे लिए यह ज़िंदगी का नायाब मौक़ा था। मैं उसे ऐसे ही कैसे गंवा सकती थी, किसी ऐसी चीज़ के लिए जिसे मैं मुहब्बत मान बैठी थी? कितनी बेवकूफ़ी की बात थी यह? मैं झुकने वाली नहीं थी। अभि को लगता था कि मैं पत्थरदिल हो रही हूं। मुझे लगता था कि मैं प्रेक्टीकल और समझदार हो रही हूं।
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वह मुझसे एक ऐसी चीज़ छोड़ने के लिए कैसे कह सकता था जिसके लिए मैंने इतनी मेहनत की थी, सिर्फ़ इसलिए कि मैं उसके साथ रह सकूं? क्यूसैट
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प्यार, उसका चाहे जो भी रूप हो, बहुत ही अजीब शै होता है।
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लोग कहते हैं कि जब कोई विपदा आ पड़ती है तो वह आपकी सामान्य इंद्रियों को इस क़दर सुन्न कर देती है कि जज़्बात बेकाबू नहीं होने पाते।
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स्नेहम मात्रम पुचिकरुथु। भले ही वह कहीं से भी आए,”
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“मुहब्बत को कभी बेइज़्ज़त मत करना,”
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काश मैंने उससे कहा होता कि मेरा एक हिस्सा उसे प्यार करता है। काश मैंने उसे दिलासा दिया होता कि साल में एक बार छुट्टियों में जब मैं कोचीन आया करूंगी, तो हम मिला करेंगे। मैंने हज़ारों-लाखों बार कामना की। मैंने हज़ारों-लाखों चीज़ों की कामना की।
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वे बस कामनाएं ही रहीं जो ताउम्र मुझे सताती रहेंगी और जिन्होंने मुझे एक ऐसा अहम सबक़ सिखाया था जो तब तक मेरे साथ रहेगा जब तक मैं जीवित रहूंगी और भविष्य में लोगों के साथ मेरे बर्ताव को तय करेगा--मुहब्बत की कभी बेइज़्ज़ती न करना, चाहे वह कहीं से भी आए और अपनी बोली और कामों में थोड़ा सा विनम्र, अच्छा और दयालु बनना।
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मुंबई वह सब कुछ थी जिसके होने की मैंने कल्पना की थी और वह सब कुछ भी थी जिसकी मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। मुंबई तो उस किंवदंतियों वाले हाथी की तरह है जिसका पांच नेत्रहीन आदमी वर्णन करते हैं। हर कोई उसके एक नन्हे से भाग को ही महसूस करता है और आश्वस्त हो जाता है कि उसके वर्णन वाली मुंबई ही असली मुंबई है। यह संस्कृतियों, व्यक्तित्वों, बस्तियों का एक विशाल कड़ाह है और वे सब बिना किसी प्रयास के इसमें घुलमिल जाती हैं और एक नए घालमेल का निर्माण करती हैं जो सबका स्वागत करता है। यह लगभग चमत्कारिक है।
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मुंबई ख़ामोशी से आपको समझती है, स्वीकार करती है और अपने आग़ोश में समेट लेती है।
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पहली बार मैंने देखा था कि विषयों को बिना किताबों या लेक्चर्स के भी पढ़ाया जा सकता है, कम से कम पारंपरिक तरीक़े से नहीं।
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लेकिन अंदर ही अंदर बदलाव आ रहे थे, बहुत बारीकी से, बहुत धीमे-धीमे, बहुत कुछ पृथ्वी की संरचनात्मक सतहों में होने वाली धीमी गतिविधियों की तरह जो बाद में भयंकर ज्वालामुखीय विस्फोटों में तब्दील हो जाती हैं।
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इतनी मसरूफ़ रहती थी कि मैंने वास्तव में कभी इस ओर ध्यान ही नहीं दिया था। अब जितना मैं इसे देखती उतना ही यह मुझे लुभावना लगता। मुझे अहसास हुआ कि मैं तो वास्तव में इतने समय से अंधी ही थी और मैं
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मैंने कल्पना भी नहीं की थी कि उन पन्नों पर बिखरा मेरा दुख, मेरा दर्द और मेरी गंभीरता को इस तरह नंगा किया जाएगा और उसे ऐसी मैडिकल शब्दावली और शब्दाडंबरों की चौंधिया देने वाली, असहनीय चमक में बेरहमी से जांचा जाएगा जिसे मैंने कभी सुना भी नहीं था। उस जांच की बेरहमी में पीड़ा, हसरत और निष्कपटता से भरे मेरे बड़ी सावधानी से चुने हुए शब्द कुम्हला जाएंगे, नष्ट हो जाएंगे। उनका क़त्ल कर दिया जाएगा और उन्हें ख़त्म कर दिया जाएगा। उनका एक
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किसी लड़के से इस तरह का ख़त पाना और फिर बेशर्मी से उसे सहेजे रखना उनके मुताबिक़ किसी अच्छी परवरिश पाई लड़की द्वारा किया जाने वाला घोर पाप था। उनके हिसाब से यह माफ़ किए जाने लायक़ नहीं था कि उनकी बेटी ने जिस पर वे इतना भरोसा करते थे इस तरह का काम किया था।
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उनके मध्यवर्गीय मूल्यों, उनकी निष्कलंक भारतीय परवरिश और उस सबमें जिसमें उनकी मान्यता थी, प्यार और रोमांस जैसी ओछी बातों के लिए कोई जगह नहीं थी।
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यह ऐसा था जैसे किसी ने मेरे दिमाग़ के किसी ऐसे अहम हिस्से को बंद कर दिया हो जो पढ़ने, समझने और सोचने तक को नियंत्रित करता था। मैं एक टूटे खिलौने जैसा महसूस कर रही थी। मुझे बहुत गहरी निराशा महसूस हो रही थी। उस परिस्थिति की निराशा जिसमें मैं थी इतनी ज़्यादा थी कि उसे बर्दाश्त करना नामुमकिन हो रहा था।
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मेरा तो खाने का भी दिल नहीं करता था लेकिन मेरे माता-पिता ज़बर्दस्ती खिलाते थे। बस उन्हें संतुष्ट करने के लिए मैं खा लेती थी, इतना थोड़ा सा कि बस मेरा शरीर चलता रहे। मैं चाहती थी कि सब कुछ बस ख़त्म हो जाए। मैं अब इस हालत में नहीं रहना चाहती थी। मैं थक गई थी। मैं हार गई थी। मैं टूट भी गई थी।
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दर्द भयानक था। वह सब कुछ जो कभी लुभावना और दिलचस्प था, अब उबाऊ लगता था। कभी किसी वक़्त जो बहुत सहजता से हो जाया करता था, उसे करने में अब ज़बर्दस्त कोशिश लगती थी। उठना और बिस्तर से निकलना भी अपने आप में एक घोर दंड था। मैं अपने मन के अंधेरे और कपंनी के लिए ख़ालीपन के साथ अंधेरे में लेटे रहना ही पसंद करती थी। मैं चाहती थी कि मुझे अकेला छोड़ दिया जाए।
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मैं अब खुद को वही इंसान महसूस नहीं करती थी। मैं इससे तालमेल नहीं बिठा पा रही थी।
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इस तरह अपने ही शरीर में फंसे होना मौत से भी बदतर नियति है। मौत के साथ कम से कम कोई अंत तो होता है। यहां तो यातना अंतहीन है। आप ख़ुद से नहीं भाग सकते। यह यातना वहशियाना है।
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जब मैंने किताब को खोला और उसे पढ़ने की कोशिश की तो एक बार फिर निराशा, घबराहट और ग़ुस्से ने मुझे अपनी गिरफ़्त में ले लिया। यह पहले की तरह ही था। कुछ नहीं बदला था। प्रचंड ग़ुस्से में मैंने एक बार फिर रीडिंग लैंप को उठाया और घुमाकर कमरे में फेंक दिया।
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मैं इस सबसे थक गई थी। मैं चाहती थी यह ख़त्म हो जाए। इस मुसीबत से निकलने का बस एक ही तरीक़ा था। यही मेरा इकलौता बचाव था। शांति मगर दृढ़ता से मैंने अपनी जान लेने का इरादा पक्का किया।
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मैं लोगों से मिलने-जुलने से बचने लगी। अपने रेज़ीडेंशियल कॉम्प्लेक्स में मैं किसी से मिलना नहीं चाहती थी। मैं किसी से बात करना नहीं चाहती थी, ना किसी को यह समझाना नहीं चाहती थी कि मैं अब कॉलेज क्यों नहीं जा रही थी। मैं हमेशा लोगों से मिलने और उनका सामना करने के भय में जीती थी। मैं नहीं चाहती थी कि कोई मुझे इस हालत में देखे।
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अस्तित्व एकदम बेमानी था। इस उलझट्टे से निकलने का बस एक ही रास्ता था और वह था अपनी ज़िंदगी ख़त्म कर देना।
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मैंने कभी डैड को रोते नहीं देखा था, लेकिन उस रात मैंने हार और पीड़ा के आंसुओं को देखा जिन्हें वे पीछे धकेल रहे थे। मैंने उनके चेहरे पर मेरे लिए कुछ न कर पाने की घोर लाचारी और ग़ुस्सा देखा। वे बहुत मज़बूत आदमी थे, अपनी मेहनत से कामयाब हुए आदमी जिन्होंने बहुत कठोर हालात से ऊपर उठकर अपनी ज़िंदगी और अपना कैरियर बनाया था।
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उन्होंने हमेशा हमें बेहतरीन चीज़ें हासिल करवाई थीं।
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लेकिन उस रात मैंने उन्हें टूटते देखा और यह मेरी वजह से था। उन्होंने मुझसे एक शब्द भी नहीं कहा। वे मुझ पर न तो चिल...
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मैं इससे ‘बाहर नहीं निकल’ पाने को लेकर बहुत त्रस्त रही थी, और ख़ुद को इल्ज़ाम देती थी, ख़ुद से कहती थी कि यह ‘सब मेरा फितूर’ है और अगर मैं अपने विचारों को बदल लूं तो फिर से ठीक हो जाऊंगी।
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हैरत की बात है कि शब्दों और दयालुता में उपचार की शक्ति है, शायद दवाइयों से भी ज़्यादा।
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विश्‍वास में बहुत ताक़त है
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कभी-कभी इंसान को बस एक मजबूत सहारे की ज़रूरत होती है, किसी ऐसे व्यक्ति की जिस पर आप आंख मूंदकर विश्‍वास कर सकें। कोई ऐसा जो आपको रास्ता दिखा सके, जो हर समय आपके लिए मौजूद हो, जो आपको कभी निराश न करे।
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विश्‍वास एक विचित्र और शक्तिशाली चीज़ है और यह चमत्कार कर सकता है।
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किताबों को इस तरह सहेज लिया जैसे कोई कंजूस अपना ख़ज़ाना सहेजता है।
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मैं बेताब थी कि बस मुझे एकांत मिले और मैं सारी किताबें पढ़ डालूं।
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कभी-कभी हम पूरी तरह समझ नहीं पाते हैं कि हमारे पास क्या है जब तक कि हम उसे खो नहीं देते।
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यह आस्था, विश्वास और धैर्य की, और अपनी नियति ख़ुद बनाने की कहानी है।