संबंध तो बीज की तरह होते हैं, उन्हें पोषित और विकसित करना पड़ता है। अपेक्षाएँ खर-पतवार की तरह होती हैं। वे अपने आप पनपती रहती हैं। जब आप किसी संबंध को बनाए रखने के लिए अपनी ओर से बहुत कुछ देते हैं, तो अपेक्षाओं को नियंत्रित रखा जा सकता है। लेकिन जब किसी संबंध को उपेक्षित छोड़ दिया जाता है और उसमें असावधानी व लापरवाही आ जाती है, तो ये अपेक्षाएँ उस संबंध की जड़ें हिला देती हैं। जिन संबंधों में ठहराव आ जाता है, उनमें पनपती अपेक्षाएँ ही हमारी समस्याएँ बन जाती हैं।