प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों ही कर्मस्वरूप हैं। एक असत् कर्म है और दूसरा सत् निवृत्ति ही सारी नीति एवं सारे धर्म की नींव है; और इसकी पूर्णता ही संपूर्ण आत्मत्याग है, जिसके प्राप्त हो जाने पर मनुष्य दूसरों के लिए अपना शरीर, मन, यहाँ तक कि अपना सर्वस्व निछावर कर देता है। तभी मनुष्य को कर्मयोग में सिद्धि प्राप्त होती है।

