Karmayog (Hindi)
Rate it:
Read between February 3 - February 7, 2018
1%
Flag icon
चरित्र को एक विशिष्ट ढाँचे में ढालने में अच्छाई और बुराई दोनों का समान अंश रहता है, और कभी-कभी तो दुःख-सुख से भी बड़ा शिक्षक हो जाता
4%
Flag icon
बुद्ध एवं ईसा मसीह में जैसी प्रबल इच्छाशक्ति थी, वह एक जन्म में प्राप्त नहीं की जा सकती। और उसे हम आनुवंशिक शक्तिसंचार भी नहीं कह सकते, क्योंकि हमें ज्ञात है कि उनके पिता कौन थे।
4%
Flag icon
उस महान् शक्ति का उद्भव कहाँ से हुआ? अवश्य, युग-युगांतरों से वह उस स्थान में ही रही होगी, और क्रमशः प्रबलतर होते-होते अंत में बुद्ध तथा ईसा मसीह के रूप में समाज में प्रकट हो गई,
5%
Flag icon
यह स्मरण रखना चाहिए कि समस्त कर्मों का उद्देश्य है मन के भीतर पहले से ही स्थित शक्ति को प्रकट कर देना, आत्मा को जाग्रत् कर देना।
11%
Flag icon
दूसरा ज्ञानी का, जो यह मानता है कि हमारी मानसिक दशा तथा परिस्थिति के अनुसार कर्तव्य तथा सदाचार भिन्न-भिन्न हो सकते हैं।
32%
Flag icon
लोहे की जंजीर भी एक जंजीर है और सोने की जंजीर भी एक जंजीर है। यदि
50%
Flag icon
प्रत्येक धर्म के तीन विभाग होते हैं। प्रथम दार्शनिक, दूसरा पौराणिक और तीसरा कर्मकांड।
54%
Flag icon
स्वयं न तो यह अच्छी है, न बुरी। जैसा हम इसका उपयोग करते हैं, तदनुरूप यह अच्छी या बुरी बन जाती है। यही हाल इस संसार का भी है।
58%
Flag icon
हमारा यह संसार भी बस कुत्ते की टेढ़ी पूँछ के ही समान है; सैकड़ों वर्ष से लोग इसे सीधा करने का प्रयत्न कर रहे हैं, परंतु ज्यों ही वे इसे छोड़ देते हैं, त्यों ही यह फिर से टेढ़ा का टेढ़ा हो जाता है।
62%
Flag icon
यही कि हम चाहे जितना भी प्रयत्न क्यों न करें, ऐसा कोई कर्म नहीं हो सकता, जो संपूर्णतः पवित्र हो अथवा संपूर्णतः अपवित्र। यहाँ पवित्रता या अपवित्रता से हमारा तात्पर्य है अहिंसा या हिंसा। बिना दूसरों को नुकसान पहुँचाए हम साँस तक नहीं ले सकते। अपने भोजन का प्रत्येक ग्रास हम किसी दूसरे के मुँह से छीनकर खाते हैं। यहाँ तक कि हमारा अस्तित्व भी दूसरे प्राणियों के जीवन को हटाकर होता है।
63%
Flag icon
पूर्ण जीवन शब्द ही स्वविरोधात्मक है। जीवन तो हमारे एवं प्रत्येक बाह्य वस्तु के बीच एक प्रकार का निरंतर द्वंद्व सा है। प्रतिक्षण हम बाह्य प्रकृति से संघर्ष करते रहते हैं, और यदि उसमें हमारी हार हो जाए, तो हमारा जीवनदीप ही बुझ जाता है। आहार और हवा के लिए निरंतर चेष्टा का नाम ही है जीवन। यदि हमें भोजन या हवा न मिले, तो हमारी मृत्यु हो जाती है। जीवन कोई आसानी से चलनेवाली सरल चीज नहीं है, यह तो एक प्रकार का सम्मिश्रित व्यापार है। बहिर्जगत् और अंतर्जगत् का घोर द्वंद्व ही जीवन कहलाता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जब यह द्वंद्व समाप्त हो जाएगा, तो जीवन का भी अंत हो जाएगा।
63%
Flag icon
दूसरों के लिए किए गए कार्य का मुख्य फल है—अपनी स्वयं की आत्मशुद्धि। दूसरों के प्रति निरंतर भलाई करते रहने से हम स्वयं को भूलने का प्रयत्न करते रहते हैं। और यह आत्मविस्मृति ही एक बहुत बड़ी शिक्षा है, जो हमें जीवन में सीखनी है।
64%
Flag icon
यह संपूर्ण आत्मत्याग ही सारी नीति की नींव है। मनुष्य, पशु, देवता, सब के लिए यही एक मूल भाव है, जो समस्त नैतिक आदर्शों में व्याप्त है।
65%
Flag icon
संस्कृत में दो शब्द हैं—‘प्रवृत्ति’ और ‘निवृत्ति’। प्रवृत्ति का अर्थ है—किसी वस्तु की ओर प्रवर्तन या गमन, और निवृत्ति का अर्थ है—किसी वस्तु में निवर्तन या दूर गमन।
65%
Flag icon
प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों ही कर्मस्वरूप हैं। एक असत् कर्म है और दूसरा सत् निवृत्ति ही सारी नीति एवं सारे धर्म की नींव है; और इसकी पूर्णता ही संपूर्ण आत्मत्याग है, जिसके प्राप्त हो जाने पर मनुष्य दूसरों के लिए अपना शरीर, मन, यहाँ तक कि अपना सर्वस्व निछावर कर देता है। तभी मनुष्य को कर्मयोग में सिद्धि प्राप्त होती है।
66%
Flag icon
जगत् से उनका तात्पर्य है स्वार्थपरता। निस्स्वार्थता ही ईश्वर है। एक मनुष्य चाहे रत्नखचित सिंहासन पर आसीन हो, सोने के महल में रहता हो, परंतु यदि वह पूर्ण रूप से निस्स्वार्थ है तो वह ब्रह्म में ही स्थित है।
69%
Flag icon
यह सोचना कि मेरे ऊपर कोई निर्भर है तथा मैं किसी का भला कर सकता हूँ—अत्यंत दुर्बलता का चिह्न है। यह अहंकार ही समस्त आसक्ति की जड़ है, और इस आसक्ति से ही समस्त दुःखों की उत्पत्ति होती है। हमें अपने मन को यह भलीभाँति समझा देना चाहिए कि इस संसार में हमारे ऊपर कोई भी निर्भर नहीं है। एक भिखारी भी हमारे दान पर निर्भर नहीं। किसी भी जीव को हमारी दया की आवश्यकता नहीं, संसार का कोई भी प्राणी हमारी सहायता का भूखा नहीं। सब की सहायता प्रकृति से होती है। यदि
73%
Flag icon
केवल अज्ञ लोग ही कहते हैं कि कर्म और ज्ञान भिन्न-भिन्न हैं, ज्ञानी लोग नहीं।’’
74%
Flag icon
‘कर्म’ शब्द ‘कार्य’ के अतिरिक्त कार्य-कारण भाव को भी सूचित करता है।
80%
Flag icon
कर्म तो अवश्यंभावी है—करना ही पड़ेगा, किंतु सर्वोच्च ध्येय को सम्मुख रखकर कार्य करो।
89%
Flag icon
इस जगत् रूप मिश्रण में प्रत्येक परमाण दूसरे परमाणुओं से पृथक् हो जाने की चेष्टा कर रहा है, पर दूसरे उसे आबद्ध करके रखे हुए हैं। हमारी पृथ्वी सूर्य से दूर भागने की चेष्टा कर रही है तथा चंद्रमा, पृथ्वी से। प्रत्येक वस्तु अनंत विस्तारोन्मुख है।
99%
Flag icon
मैं ईश्वर के बारे में तुम्हारे मत-मतांतरों को जानने की परवाह नहीं करता। आत्मा के बारे में विभिन्न सूक्ष्म मतों पर बहस करने से क्या लाभ? भला करो और भले बनो। बस यही तुम्हें निर्वाण की ओर अथवा जो कुछ सत्य है, उसकी ओर ले जाएगा।’’