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Kindle Notes & Highlights
गये। “यहीं कहीं खेल रहे होंगे।” सुशीला बोली, “मैं अभी ढूंढ़कर लाती
उसकी प्रकृति के प्रतिकूल कार्य करने के लिए बाध्य किया जाये तो उसमें या तो विरोध जागता है या द्वन्द्ध। विरोध में वह तुम्हारे काम का नहीं रहेगा और द्वन्द्ध में तो वह अपने काम का भी नहीं रहेगा।”
जीवन में स्वतन्त्र वही है, जो आत्मनिर्भर
ब्रज का सारा दूध मथुरा पहुंच जाता था। गोपालों के अपने बच्चों के लिए भी दूध-घी उपलब्ध नहीं था। कृष्ण ने दूध के इस विवेक-शून्य निर्यात का विरोध किया था। गोप तो फिर मान गये थे—भीरु गोपियां, कस के क्रोध से बचने के लिए छिप-छिपकर दूध ले जाया करती थीं; या उन्हें धन का मोह अधिक था। उन्हें रोकने के लिए कृष्ण को अपने मित्रों की सहायता से मटकियां तोड़नी पड़ीं। इस सामाजिक, राजनीतिक संघर्ष को भक्तों ने कृष्ण का विलास बना दिया।
“सामान्यतः हमारा समाज उस व्यक्ति को बड़ा आदमी मानता है, जिसके पास धन हो; पर वास्तविक बड़ा आदमी वह नहीं होता।” सुदामा बोले, “बड़ा आदमी वह होता है, जो अपनी पशु-वृत्तियों को त्याग सके और अपनी साधना, त्याग तथा तपस्या से मानव जाति के कल्याण के लिए कोई मार्ग निकाल सके... । आदमी बड़ा न धन से होता है, न ज्ञान से, आदमी बड़ा होता
“एक वन था। बहुत सघन।” “उसमें सिंह था?” “सिंह भी था। पर मैं कोयल की कहानी सुना रहा हूं।” सुदामा बोले। “कोयल थी?” “हां! वहां एक पेड़ पर एक कोयल रहा करती थी।” “सिंह, कोयल को खा नहीं गया?” ज्ञान ने पूछा। “नहीं। सिंह कोयल को नहीं खाता। फिर कोयल पेड़ के ऊपर की शाखाओं पर रहती है। सिंह नीचे भूमि पर रहता है।” सुदामा बोले, “कोयल का स्वर बहुत मधुर होता है। कोयल कूकती है तो ऐसा लगता है, जैसे कोई मधुर गीत गा रहा है...। पर कोयल वाले वृक्ष के चारों ओर कौवे ही कौवे रहते थे।” “फिर क्या हुआ पिताजी?” ज्ञान बहुत उत्सुक हो उठा था। “वन में एक बार एक संगीत-सभा हुई।” सुदामा बोले, “यह निश्चित हुआ कि जो सबसे सुन्दर
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“फिर संगीत-सम्मेलन हुआ।” सुदामा ने कहानी आगे बढ़ायी, “उसमें बहुत सारे कौवे भी आये और अन्य पशु-पक्षियों ने भी भाग लिया। कौवों ने कांव-कांव कर बहुत शोर मचाया। अन्त में कोयल की बारी आयी। जब कोयल कूकी तो वन के समस्त पशु-पक्षियों ने एकमत से स्वीकार किया कि कोयल नि:सन्देह संगीत-सम्राज्ञी है। किन्तु सभा में कौवों की संख्या बहुत अधिक थी। इसलिए निर्णायक भी एक कौवा ही था। कौवों ने मिलकर शोर मचाया—‘नहीं! नहीं!! कोयल के स्वर में तनिक भी संगीत नहीं है। निर्णायक महोदय से पूछ लो। कोयल से तो बहुत सारे कौवे अच्छा गाते हैं।’ इधर कुछ कौवे कोयल के पास पहुंचे। बोले, “तुम अच्छा गाती हो, हम मानते हैं। पर तुम कोयल
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ऐसे ही एक दिन बातें करते-करते राधा कृष्ण को बहुत दूर ले गयी थी। वे चलते ही चले गये थे, बिना थके, बिना रुके। और सहसा राधा रुक गयी... “कहीं बैठ जायें।” “थक गयी!” कृष्ण ने चिढ़ाया, “तुम तो मुझसे भी अधिक बली हो।” “शरीर ठीक नहीं लग रहा।” कृष्ण ने देखा : राधा का चेहरा सचमुच स्वस्थ नहीं था। पता नहीं, उनका ध्यान पहले क्यों इस ओर नहीं गया था। वे राधा की बातों में ही बहते रहे थे... “तुम अस्वस्थ हो?” “शायद।” कृष्ण एक कुंज में जा बैठा, “जब अस्वस्थ थीं तो इतनी दूर चलने की क्या आवश्यकता थी?” “तुमसे बातें करना अच्छा लग रहा था।” राधा ने सहज भाव से कहा था, “तुम नहीं जानते कृष्ण! जब शरीर अस्वस्थ हो या मन उदास
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कृष्ण किसे-किसे समझायेंगे कि वृन्दावन में किस गोपी के साथ उनका क्या सम्बन्ध था। अब तो कोई चर्चा करता है, तो वे मुस्कराकर रह जाते हैं...
“ठहरो! पहले मेरी बात सुनो।” उद्धव ने कृष्ण को बोलने नहीं दिया, “मैंने यह नहीं कहा कि राधा को कुछ नहीं मिला। राधा से पूछो कि उसे कृष्ण मिले या नहीं, तो उसका उत्तर होगा कि कृष्ण सदा मेरे पास हैं। वे मेरी आंखों में हैं, मेरे मन में हैं, मेरी आत्मा में हैं...”
“इसे तुम प्राप्ति मानोगे?” सुदामा ने तुनककर पूछा। “पूरी बात तो सुनो भाई!” उद्धव अपने गम्भीर स्वर में बोले, “राधा के अनुसार तो उसे अपने मनभावन की प्राप्ति हो गयी है। उससे अधिक की उसे आकांक्षा भी नहीं है। पर दूसरी ओर हमारी रुक्मिणी भाभी हैं। वे भी कृष्ण की भक्ति करती हैं। पर उन्होंने केवल भक्ति ही नहीं की, उनकी कामना भावात्मक धरातल पर ही नहीं रही, वे सक्रिय हुईं। उन्होंने अपने भाई और पिता का विरोध किया। किसी अन्य पुरुष से विवाह न करने पर तुली रहीं। कृष्ण को सन्देश भिजवाया—अर्थात् उन्होंने कर्म किया और उन्हें कृष्ण प्राप्त हुए…।”
कामना है; और कामना के साथ कर्म न हो तो भक्ति उस कामना को तो पूर्ण नहीं कर सकती।”
“आत्महत्या करने वाला व्यक्ति यह कहता है कि यह संसार मुझे पसन्द नहीं है, इसलिए मैं इसे छोड़ता हूं। किन्तु वैरागी यह कहता है कि संसार व्यर्थ है, किन्तु मैं अपने जीवन को धारण किये रहूंगा।
कृष्ण कह रहा था कि अधिक स्वतन्त्रता, समृद्धि और शक्ति पाकर यादवों में आलस्य और विलास बढ़ा है, तृष्णा बढ़ी है, वैर और द्वेष बढ़ा है। परिणामतः उनका तेज कम हुआ है–न्याय-अन्याय का विचार, धर्म-अधर्म का चिन्तन कम हुआ है…और इन्हीं कारणों से वे अन्तत: नष्ट हो जायेंगे…और इसके विपरीत कंस के दमन और अत्याचार, जरासन्ध के अधर्म और पाप को सह-सहकर यादव जातियों में एकता बढ़ी, उनकी शक्ति बढ़ी, उनमें ओज और तेज आया और उन लोगों को कृष्ण जैसा नेता मिला…विचित्र गति है यह तो और विचित्र चिन्तन।