कभी-कभी मुझे इंसानों पर तरस आता है कि वे दूसरे जीवों की तरह एक जगह से दूसरी जगह नहीं जा सकते। जीवों के लिए कोई बॉर्डर नहीं है, सिवाय उन जगहों के जहां वो खुद जा सकें। इंसान ही है, जो कहता है कि वो आजाद होकर जीता है, लेकिन वह अपनी जगह की बाधाओं में घिरा है। हम सिर्फ अपने काम से ही नहीं बंधे हैं, बल्कि अपने घरों से भी। हम घूमते नहीं हैं। हम छोटी सी, निर्जन जगह पर रहते हैं--ऐसी जगह जिसे शायद पिंजरा ही कहा जा सकता है। हमारी काम की निश्चित जगह है, हम रोज एक ही तरह का खाना खाते हैं, और एक ही तरह के लोगों से मिलते हैं। मेरे लिए वो पिंजरा पुणे है।