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शुद्ध हिसाब के बिना शुद्ध सत्य की रक्षा असम्भव है।
खींच-तानकर अथवा दिखावे के लिए या लोकलाज के कारण की जाने वाली सेवा आदमी को कुचल देती है, और ऐसी सेवा करते हुए भी आदमी मुरझा जाता है। जिस सेवा से आनन्द नहीं मिलता, वह न सेवक को फलती है, न सेव्य को रुचिकर लगती है। जिस सेवा में आनन्द मिलता है, उस सेवा के सम्मुख ऐश-आराम या धनोपार्जन इत्यादि कार्य तुच्छ प्रतीत होते हैं।
रतिसुख एक स्वतंत्र चर्या है, इस धारणा में मुझे तो घोर अज्ञान ही दिखायी पड़ता है। जनन-क्रिया पर संसार के अस्तित्व का आधार है। संसार ईश्वर की लीलाभूमि है, उसकी महिमा का प्रतिबिम्ब है। उसकी सुव्यवस्थित वृद्धि के लिए ही रतिक्रिया का निर्माण हुआ है, इस बात को समझने वाला मनुष्य विषय-वासना को महाप्रयत्न करके भी अंकुश में रखेगा और रतिसुख के परिणाम-स्वरूप होने वाली संतति की शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक रक्षा के लिए जिस ज्ञान की प्राप्ति आवश्यक हो उसे प्राप्त करके उसका लाभ अपनी सन्तान को देगा।
जब तक विचारों का इतना अंकुश प्राप्त नहीं होता कि इच्छा के बिना एक भी विचार मन में न आए, तब तक ब्रह्मचर्य सम्पूर्ण नहीं कहा जा सकता। विचार-मात्र विकार है, मन को वश में करना; और मन को वश में करना वायु को वश में करने से भी कठिन है।
सत्य एक विशाल वृक्ष है। ज्यों-ज्यों उसकी सेवा की जाती है, त्यों-त्यों उसमें से अनेक फल पैदा होते दिखाई पड़ते हैं। उनका अन्त ही नहीं होता। हम जैसे-जैसे उसकी गहराई में उतरते जाते हैं, वैसे-वैसे उसमें से अधिक रत्न मिलते जाते हैं, सेवा के अवसर प्राप्त होते रहते हैं।
भरसक चाय पीना बन्द किया और शाम को जल्दी खाने की आदत डाली, जो आज स्वाभाविक हो गई है।
ब्रह्मचर्य का पालन करने की इच्छा रखने वाले लोग भोगी का जीवन बिताकर ब्रह्मचर्य को कठिन और कभी-कभी लगभग असंभव बना डालते हैं।
ब्रह्मचर्य का पालन करने की इच्छा रखने वालों को यहाँ एक चेतावनी देने की आवश्यकता है। हालांकि मैंने ब्रह्मचर्य के साथ आहार और उपवास का निकट सम्बन्ध सूचित किया है, तो भी यह निश्चित है कि उसका मुख्य आधार मन पर है। मैला मन उपवास से शुद्ध नहीं होता। आहार का उस पर प्रभाव नहीं पड़ता। मन का मैल तो विचार से, ईश्वर के ध्यान से और अंत में ईश्वर की कृपा से ही छूटता है। किन्तु मन का शरीर के साथ निकट सम्बन्ध है और विकारयुक्त मन विकारयुक्त आहार की खोज में रहता है। विकारी मन अनेक प्रकार के स्वादों और भोगों की तलाश में रहता है और बाद में उन आहारों तथा भोगों का प्रभाव मन पर पड़ता है। इसलिए उस हद तक आहार पर अंकुश
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विषया विनिर्वते निराहारस्य देहिन:। रसवर्जं रसोडप्पस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।। (उपवासी के विषय उपवास के दिनों में शान्त होते हैं, पर उसका रस नहीं जाता। रस तो ईश्वर-दर्शन से ही, ईश्वर प्रसाद से ही शान्त होता है।)
मैंने सुना है कि लोगों में यह भ्रम फैला हुआ है कि आत्मज्ञान चौथे आश्रम में प्राप्त होता है। लेकिन जो लोग इस अमूल्य वस्तु को चौथे आश्रम तक मुल्तवी रखते हैं, वे आत्मज्ञान प्राप्त नहीं करते, बल्कि बुढ़ापा और दूसरा, परन्तु दयायोग्य, बचपन पाकर पृथ्वी पर भाररूप बनकर जीते हैं।
किन्तु कोई देहधारी बाह्य हिंसा से सर्वथा मुक्त नहीं हो सकता।