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Kindle Notes & Highlights
जिस्म में फैलने लगा है शहर अपनी तनहाइयाँ बचा रखना।
फ़ासला, चाँद बना देता है हर पत्थर को दूर की रौशनी नज़दीक तो आने से रही।
शहर में सबको कहाँ मिलती है रोने की जगह अपनी इज़्ज़त भी यहाँ हँसने-हँसाने से रही।
मेरी आवाज़ ही पर्दा है मेरे चेहरे का मैं हूँ ख़ामोश जहाँ मुझको वहाँ से सुनिए।
चाँद में कैसे हुई क़ैद किसी घर की खुशी ये कहानी किसी मस्जिद की अज़ाँ से सुनिए...।
हिन्दू भी मज़े में है मुसलमाँ भी मज़े में इन्सान परेशान यहाँ भी है वहाँ भी।
शाम! थकी-हारी माँ जैसी एक दिया मिलकाये धीमे-धीमे सारी बिखरी चीज़ें चुनती जाये
यही है ज़िन्दगी कुछ ख़्वाब, चंद उम्मीदें, इन्हीं खिलौनों से तुम भी बहल सको तो चलो।