दिन सलीके से उगा दिन सलीके से उगा रात ठिकाने से रही दोस्ती अपनी भी कुछ रोज़ ज़माने से रही। चंद लम्हों को ही बनती हैं मुसव्विर आँखें ज़िन्दगी रोज़ तो तसवीर बनाने से रही। इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी रात जंगल में कोई शमअ जलाने से रही। फ़ासला, चाँद बना देता है हर पत्थर को दूर की रौशनी नज़दीक तो आने से रही। शहर में सबको कहाँ मिलती है रोने की जगह अपनी इज़्ज़त भी यहाँ हँसने-हँसाने से रही।