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Kindle Notes & Highlights
कभी-कभी तो सफ़र ऐसे रास आते हैं ज़रा-सी देर में दो घंटे बीत जाते हैं।
नई-नई आँखें हों तो हर मंज़र अच्छा लगता है...! कुछ दिन शहर में घूमे लेकिन, अब घर अच्छा लगता है।
कुछ तबीअत ही मिली थी ऐसी, चैन से जीने की सूरत न हुई जिसको चाहा उसे अपना न सके, जो मिली उससे मुहब्बत न हुई।
दिन सलीके से उगा दिन सलीके से उगा रात ठिकाने से रही दोस्ती अपनी भी कुछ रोज़ ज़माने से रही। चंद लम्हों को ही बनती हैं मुसव्विर आँखें ज़िन्दगी रोज़ तो तसवीर बनाने से रही। इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी रात जंगल में कोई शमअ जलाने से रही। फ़ासला, चाँद बना देता है हर पत्थर को दूर की रौशनी नज़दीक तो आने से रही। शहर में सबको कहाँ मिलती है रोने की जगह अपनी इज़्ज़त भी यहाँ हँसने-हँसाने से रही।