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आपको चंदे की पड़ी है, हम तो टैक्सों के मारे मर रहे हैं। सोचा,यह टैक्स की बीमारी कैसी होती है।
टैक्स की बीमारी की विशेषता यह है कि जिसे लग जाए वह कहता है–हाय, हम टैक्स से मर रहे हैं, और जिसे न लगे वह कहता है–हाय, हमें टैक्स की बीमारी ही नहीं लगती।
मेरे पास एक आदमी आता था, जो दूसरों की बेईमानी की बीमारी से मरा जाता था। अपनी बेईमानी प्राणघातक नहीं होती, बल्कि संयम से साधी जाए तो स्वास्थ्यवर्द्धक होती है।
फिर तुम आदर्श लेकर गए ही क्यों? गांधीजी दुकान खोलने का आदेश तो मरते-मरते दे नहीं गए थे।
गांधीजी का नाम प्रतिष्ठान में जुड़ा होने के कारण वह बेईमानी नहीं कर पाता था और दूसरों की बेईमानी से बीमार था।
अगर प्रतिष्ठान का नाम कुछ और हो जाता तो वह भी औरों जैसा करता और स्वस्थ रहता। मगर गांधीजी ने उसकी ज़िंदगी बरबाद की थी। गांधीजी विनोबा जैसों की ज़िन्दगी बरबाद कर गए।
बड़ी मुश्किल है व्यंग्यकार की। वह अपने पैसे मांगे, तो उसे भी व्यंग्य-विनोद में शामिल कर लिया जाता है।
तरह-तरह के संघर्ष में तरह-तरह के दुख हैं। एक जीवित रहने का संघर्ष है और एक सम्पन्नता का संघर्ष है। एक न्यूनतम जीवन-स्तर न कर पाने का दुख है, एक पर्याप्त सम्पन्नता न होने का दुख है। ऐसे में कोई अपने टुच्चे दुखों को लेकर कैसे बैठे?
अधिकार इसलिए हासिल कर लिया है कि वह अपने काम से मेरे पास नहीं आता। देश के काम से आता है। जो देश का काम करता है, उसे थोड़ी बदतमीज़ी का हक है। देश-सेवा थोड़ी बदतमीजी के बिना शोभा ही नहीं देती। थोड़ी बेवकूफी भी मिली हो, तो और चमक जाती है।
मुल्क की फिक्र करते-करते गांधी और नेहरू जैसे चले गये। अब यह पिद्दी क्या सुधार लेगा?
विनोबा ने देखा तो पूछा–क्या अध्ययन कर रहे हो? मैंने कहा–जासूसी किताब पढ़ रहा हूं। बाबा ने पूछा–इसे क्यों पढ़ते हो? मैंने जवाब दिया–समय काटने के लिए। विनोबा ने कहा–हूं, समय तुम्हारी समस्या
दया की भी शर्तें होती हैं।
पर तभी डरा, कि निकलते ही यह खीझ में मुझे सींग मार दे तो! मैं दया समेत उसे देखता रहा।
‘सोसाइटी फॉर दी प्रिवेंशन आफ क्रुएल्टी टु एनिमल्स’ याने जानवरों पर होने वाली क्रूरता पर रोक लगाने वाले संगठन के एक सदस्य ने बर्फ तोड़ने के कीले से कोंच-कोंचकर अपनी बीवी को मार डाला था। दया की शर्तें होती हैं। हर प्राणी दया का पात्र है, बशर्ते वह अपनी बीवी न हो।
उस अनुभव के आधार पर हम कुछ कहते हैं, तो ये लड़के सुनते क्यों नहीं? मैंने कहा–शायद इसलिए कि अनुभवों के अर्थ बदल गए हैं।
हमारे चाचा जब तब इस न कुछपन से त्रस्त होते, परिवार में लड़ाई करवा देते।
तूफान खड़ा कर देने में सफलता से उन्हें अपने अस्तित्व और अर्थ का बोध होता और मन को चैन मिलता।
वह दुनिया में किसी को गणित में कमज़ोर नहीं देख सकता। मैंने देखा, वे
अब मैं बुजुर्गों से डरने लगा हूं। पर वे नाराज़ न हों।
समाज का भविष्य इस बात पर निर्भर है कि वह अपने रिटायर्ड लोगों का क्या करता है। अगर कुछ नहीं करता तो रिटायर्ड वृद्ध काम करते युवा के काम में दखल देगा और समाज की कर्म-शक्ति घटेगी।
काम न मिले तो कम से कम यह तो हो ही सकता है कि पुरानी मशीनें एक-दूसरी का जंग साफ करते, वक्त गुज़ार दें।
है। इस पोथी में 40 पन्ने हैं–याने चार डॉक्टरेटों की सामग्री है। इस पोथी से रामकथा के अध्ययन में एक नया अध्याय जुड़ता है। डॉ. कामिल बुल्के भी इससे फायदा उठा सकते हैं।
अयोध्या के नर-नारी तो राम के स्वागत की तैयारी कर रहे थे, मगर व्यापारी वर्ग घबड़ा रहा था।
हनुमानजी एनफोर्स ब्रांच के डाइरेक्टर नियुक्त हो गए। बड़े कठोर आदमी हैं। शादी-ब्याह नहीं किया। न बाल, न बच्चे। घूस भी नहीं चलेगी।
हनुमान जहां भी जाते, लाल लंगोट के कपड़े में बंधे खाता-बही देखते। वे बहुत खुश हुए। उन्होंने किसी हिसाब की जांच नहीं की।
पर सर्वहारा के नेता को सावधान रहना चाहिए कि उसके लंगोट से बूर्जुआ अपने खाता-बही न बांध लें।
शत्रुघ्न ने भरत की तरफ देखा। बोले–बड़े भैया यह क्या करने लगे हैं? स्मगलिंग में लग गए हैं। पैसे की तंगी थी तो हमसे मंगा लेते। स्मगल के धंधे में क्यों फंसते हैं? बड़ी बदनामी होती है।
भरत ने कहा–स्मगलिंग यों अनैतिक है। पर स्मगल किए हुए सामान से अपना या अपने भाई-भतीजों का फायदा होता हो, तो यह काम नैतिक हो जाता है। जाओ हनुमान, जे जाओ दवा! मुंशी से कहा–रजिस्टर का यह पन्ना फाड़ दो।
तुम हँस रहे हो, मगर मैं सिर्फ थोड़ा मनोरंजन अनुभव कर रहा था। गंवार हँसता है, बुद्धिवादी सिर्फ रंजित हो जाता है।
हों। पर वे लापरवाही से ऐसे छोड़ी गई हैं कि किताब का नाम साफ दिख रहा है। किताबों
लापरवाही से एक-दूसरी पर गिरेंगी तो भी इस सावधानी से कि हर किताब का नाम न दबे।
जब वे ‘टु माइ माइंड’ कहते हैं तब मुझे लगता है, मेरे पास दिमाग नहीं है। दुनिया में सिर्फ एक दिमाग है और वह इनके पास है। जब वे 35 डिग्री सिर को नहीं घुमाए होते और हथेली पर ठुड्डी नहीं होती, तब वे बहुत मामूली आदमी लगते हैं। कोण से बुद्धिवाद साधने की कला सीखने में कितना अभ्यास लगा होगा उनको।
बहुत पतित
बीमार आदमी को देखकर वह दवा का इंतज़ाम नहीं करेगा। वह विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट उसे पढ़कर सुनाएगा।
बोला–समाज का पहला फर्ज़ यह है कि वह अपने को नष्ट कर ले। सोसाइटी मस्ट डेस्ट्रॉय इटसैल्फ! यह जाति, वर्ण और रंग और ऊंच-नीच के भेदों से जर्जर समाज पहले मिटे, तब नया बने।
सोचा पूछूं–सारा समाज नष्ट हो जाएगा तो प्रकृति को मनुष्य बनाने में कितने लाख साल लग जाएंगे? मैंने पूछा
बुद्धिवादी मार्क्सवाद की बात कर लेता है। फ्रायड और आइन्सटीन की बात कर लेता है। विवेकानन्द और कन्फूशियस की बात कर लेता है। हर बात कहकर हमें उसे समझने और पचाने का मौका देता है।
उन्होंने नंगी, बुझी आंखों से हमारी तरफ देखा। फिर अत्यन्त भरी आवाज़ में कहा–यह लड़का कायस्थ है न!
पवित्रता का मुंह दूसरों की अपवित्रता के गंदे पानी से धुलने पर ही उजला होता है।
झूठे विश्वास का भी बड़ा बल होता है। उसके टूटने का भी सुख नहीं, दुख होता है। एक सज्जन की
सही है, पर मूर्खता के सिवाय कोई भी मान्यता शाश्वत नहीं है। मूर्खता अमर है। वह बार-बार मरकर फिर जीवित हो जाती है।
पर अनुभव से ज़्यादा इसका महत्त्व है कि किसी ने अनुभव से क्या सीखा। अगर किसी ने 50-60 साल के अनुभव से सिर्फ यह सीखा कि सबसे दबना चाहिए तो अनुभव के इस निष्कर्ष की कीमत में शक हो सकता है। किसी दूसरे ने इतने ही सालों के अनुभव से शायद यह सीखा हो कि किसी से नहीं डरना चाहिए।
हैं। केंचुए ने अपने लाखों सालों के अनुभव से कुल यह सीखा है कि रीढ़ की हड्डी नहीं होनी चाहिए।
घोषणाएं की जाती थीं कि यह चुनाव धर्मयुद्ध है; कौरव-पांडव संग्राम है। धृतराष्ट्र चौंककर संजय से कहते हैं–ये लोग अभी भी हमारी लड़ाई लड़ रहे हैं। ये अपनी लड़ाई कब लड़ेंगे? संजय कहते हैं–इन्हें दूसरों की लड़ाई में उलझे रहना ही सिखाया गया है। ये दूसरे की लड़ाई लड़ते-लड़ते ही मर जाते हैं।
है। इतना पाप और फिर ये ऐसे भले-चंगे! क्या पाप की क्वालिटी गिर गई है? उसमें भी मिलावट होने लगी है।
जिस दिन घूसखोरों की आस्था भगवान पर से उठ जाएगी, उस दिन भगवान को पूछनेवाला कोई नहीं रहेगा।
सदियों से यह समाज लिखी पर चल रहा है। लिखाकर लाए हैं तो पीढ़ियां मैला ढो रही हैं और लिखाकर लाए हैं तो पीढ़ियां ऐशो-आराम भोग रही हैं। लिखी को मिटाने की कभी कोशिश ही नहीं हुई!
वह मेरी तरफ अजब ढंग से देखता है। लगता है, कह रहा है–तुम तो कहते थे औरत प्रॉपर्टी नहीं है! अब देखो। मैं औरत को देखता हूं। वह सचमुच प्रापर्टी की तरह ही खड़ी थी।
अकेला ही नहीं हूं। पूरे समाज बीमारी को स्वास्थ्य मान लेते हैं। जाति-भेद एक बीमारी ही है। मगर हमारे यहां कितने लोग हैं जो इसे समाज के स्वास्थ्य की निशानी समझते हैं? गोरों का
ऐसे में बीमारी से प्यार हो जाता है। बीमारी गौरव के साथ भोगी जाती है। मुझे भी बचपन में परिवार ने ब्राह्मणपन की बीमारी लगा दी थी, पर मैंने जल्दी ही इसका इलाज कर लिया।