अपनी अपनी बीमारी
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अपनी बेईमानी प्राणघातक नहीं होती, बल्कि संयम से साधी जाए तो स्वास्थ्यवर्द्धक होती है।
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एक जीवित रहने का संघर्ष है और एक सम्पन्नता का संघर्ष है। एक न्यूनतम जीवन-स्तर न कर पाने का दुख है, एक पर्याप्त सम्पन्नता न होने का दुख
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व्यस्त आदमी को अपना काम करने में जितनी अक्ल की ज़रूरत पड़ती है, उससे ज़्यादा अक्ल बेकार आदमी को समय काटने में लगती है।
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हनुमान विश्व के प्रथम साम्यवादी थे। वे सर्वहारा के नेता थे। उन्हीं का लाल रंग आज के साम्यवादियों ने लिया है। पर सर्वहारा के नेता को सावधान रहना चाहिए कि उसके लंगोट से बूर्जुआ अपने खाता-बही न बांध लें।
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भरत ने कहा–स्मगलिंग यों अनैतिक है। पर स्मगल किए हुए सामान से अपना या अपने भाई-भतीजों का फायदा होता हो, तो यह काम नैतिक हो जाता है। जाओ हनुमान, जे जाओ दवा! मुंशी से कहा–रजिस्टर का यह पन्ना फाड़ दो।
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अगर कोई आदमी डूब रहा हो तो, उसे बचाएंगे नहीं, बल्कि सापेक्षिक घनत्व के बारे में सोचेंगे।
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कोई भूखा मर रहा हो, तो बुद्धिवादी उसे रोटी नहीं देगा। वह विभिन्न देशों के अन्न-उत्पादन के आंकड़े बताने लगेगा। बीमार आदमी को देखकर वह दवा का इंतज़ाम नहीं करेगा। वह विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट उसे पढ़कर सुनाएगा।
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मैंने कहा–लड़का-लड़की बड़े हैं। शादी मौसी के यहां हुई। वर अच्छा है। फिर आप दुखी और परेशान क्यों हैं? हम जिज्ञासुओं को वह रहस्य बताइए ताकि हम भी जीवन के प्रति बुद्धिवादी दृष्टिकोण अपना सकें। उन्होंने नंगी, बुझी आंखों से हमारी तरफ देखा। फिर अत्यन्त भरी आवाज़ में कहा–यह लड़का कायस्थ है न!
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पवित्रता का मुंह दूसरों की अपवित्रता के गंदे पानी से धुलने पर ही उजला होता है।
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झूठे विश्वास का भी बड़ा बल होता है। उसके टूटने का भी सुख नहीं, दुख होता है।
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मूर्खता अमर है। वह बार-बार मरकर फिर जीवित हो जाती है।
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केंचुए ने अपने लाखों सालों के अनुभव से कुल यह सीखा है कि रीढ़ की हड्डी नहीं होनी चाहिए।
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जिस दिन घूसखोरों की आस्था भगवान पर से उठ जाएगी, उस दिन भगवान को पूछनेवाला कोई नहीं रहेगा।
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लिखाकर लाए हैं तो पीढ़ियां मैला ढो रही हैं और लिखाकर लाए हैं तो पीढ़ियां ऐशो-आराम भोग रही हैं। लिखी को मिटाने की कभी कोशिश ही नहीं हुई! दुनिया के कई समाजों ने लिखी को मिटा दिया। लिखी मिटती है! आसानी से नहीं मिटती तो लात मारकर मिटा दी जाती है। इधर कुछ लिखी मिट रही है। भूतपूर्व राजा-रानी की लिखी मिट गई।
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वे बीमारियों को उपलब्धियों की तरह संभाले हुए थे। बीमारी बरदाश्त करना अलग बात है, उसे उपलब्धि मानना दूसरी बात। जो बीमारी को उपलब्धि मानने लगते हैं, उनकी बीमारी उन्हें कभी नहीं छोड़ती। सदियों से अपना यह समाज बीमारियों को उपलब्धि मानता आया है और नतीजा यह हुआ है कि भीतर से जर्जर हो गया है मगर बाहर से स्वस्थ होने का अहंकार बताता है।
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बोले–सुनाइए तिवारी जी, दिल्ली के क्या हाल हैं? यह इतना व्यापक सवाल था कि इसका जवाब सिवा इसके क्या हो सकता था कि सब ठीक है।
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एक्सटेंशन
Nafis Faizi
Extension nd moustache. Briliant allegory
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समझ में नहीं आता कि पैदा होते ही कैसे जान लिया कि बेटाजी रत्न हैं, वह
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कंकड़ नहीं हैं। ऐसा नहीं हो सकता कि अभी पुत्र कहें और अगर वैसा निकले तो रत्न कहने लगें? वैसे भी बिगड़े लड़कों को ‘रतन’ कहते ही हैं। अच्छा ‘सुपुत्र’ क्या होता है? और ‘धर्मपत्नी’ क्या चीज़ है। धर्मपत्नी होती है, तो अधर्मपत्नी क्या नहीं होती कोई? क्या धर्मादा में किसी पत्नी को ‘धर्मपत्नी’ कहते हैं? विकट कर्कशाएं तक ‘धर्मपत्नी’ कहलाती हैं। इधर एक कर्कशा है, जो पति को पीट तक देती है, पर पति जब उसका परिचय देते हैं, तब कहते हैं–यह मेरी धर्मपत्नी है। और धर्मपत्नी भी अपने को पतिव्रता समझती है–पति को चाहे पीट लूं, पर पराये आदमी से नज़र नहीं मिलाती।
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सारे युद्ध प्रौढ़ कुंवारों के अहं की तुष्टि के लिए होते हैं।
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अब मेरा आत्मविश्वास बहुत बढ़ गया। झूठ अगर जम जाए तो सत्य से ज़्यादा अभय देता है।
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पुलिस के लिए यह सवाल इतना महत्त्व नहीं रखता जितना यह सवाल, कि जुर्म किस पर साबित हो सकता है या किस पर साबित होना चाहिए। कत्ल हुआ है। तो किसी मनुष्य को सज़ा होगी ही। मारने वाले को होती है, या बेकसूर को–यह अपने सोचने की बात नहीं है। मनुष्य-मनुष्य सब बराबर हैं। सब में उसी परमात्मा
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का अंश है। हम भेदभाव नहीं करते। यह पुलिस का मानवतावाद है।
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‘जनतंत्र’ की सब्ज़ी में जो ‘जन’ का छिलका चिपका रहता है उसे छील दो और खालिस ‘तंत्र’ को पका लो। आदर्शों का मसाला और कागज़ी कार्यक्रमों का नमक डालो और नौकरशाही की चम्मच से खाओ! बड़ा मज़ा आता है–कहते हैं खानेवाले।
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साब, सब जुए के खिलाफ, पर सब जुआ खेल रहे हैं।
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सब शांति की इच्छा रखते हैं, पर सब हथियार बनाते जा रहे हैं।
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दुर्योधन बोलता है–दांव मैं लगाऊंगा, पर पांसे मेरी तरफ से मामा शकुनि फेंकेंगे। भला बताइए, ऐसा भी होता है कि दांव एक लगाए और पांसा दूसरा फेंके! मैंने कहा–होता है रे। पॉलिटिक्स में होता है।
Nafis Faizi
मोदी का इंटरविउ ..हाथ हमेशा साह की तरफ
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पर वे सब बूढ़े और ज्ञानी जैसे जवाब में कह रहे हों–अंतरात्मा की आवाज़ नहीं। हम तो अनुशासन वाले हैं। इसलिए चुप
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एक क्रांतिकारी इधर रहते हैं जिनकी कभी तनी हुई गर्दन थी। मगर उन्हें माला पहनने की लत लग गई। अब उनकी गर्दन छूने से लगता है, भीतर पानी भरा है। पहले जन-आन्दोलन में मुख्य अतिथि होते थे, अब मीना बाजार में मुख्य अतिथि होते हैं।
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शेर को अगर किसी तरह एक फूलमाला पहना दो तो गोली चलाने की ज़रूरत नहीं है। वह फौरन हाथ जोड़कर कहेगा–मेरे योग्य कोई और सेवा!
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सत्य की खोज करने वालों से मैं छड़कता हूं। वे अकसर सत्य की ही तरफ पीठ करके उसे खोजते रहते हैं।