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सतही हो या उथली, बात समझ में तो आती है! मेरी यह बात बहुत लोगों के रोष का कारण बन सकती है, पर मेरी राय में हिंदी ज़ुबान का साहित्य अपने पाठकों से बात करना भूल चुका है औ
मैंने जहाँ-तहाँ कई महिला लेखकों को पढ़ा है। उनकी लेखनी में ग़ुस्सा है। होना भी चाहिए। उन पर मेरा आक्षेप नहीं, पर कई बार वह ग़ुस्सा बेमानी या उद्दंड बन जाता है और मुद्दा पीछे छोड़ विरोधियों को उन्हें ग़लत साबित करने की अच्छी-ख़ासी जगह दे देता है।
एक अकेली बेकाम, बेफ़िक्र, बेटैम फिरती लड़की में एक अलग-सी ताक़त होती है। एक अलग-सा साहस होता है। वह साहस जो किसी (बाप, भाई, पति) का हाथ पकड़ कर निकलने में कहीं छुप जाता है। वह साहस जिससे हमारा समाज घबराता है। वह साहस जिसे कभी बाहर निकलने का मौक़ा ही नहीं दिया गया। वही साहस ढूँढ़ने तुम निकलोगी। तुम फिरोगी उस साहस को जीने। वो तुम्हारा ही है। जब निकलोगी, तब पाओगी।
शेक्सपियर ने कहा है—“To be, or not to be : that is the question”; भारत में प्रश्न है कि To be allowed to be, or not allowed to be—और होना भी तो क्या होना?
लेकिन ख़ुद को जानने और समझने का माहौल कहाँ है? जान सकने भर का अवकाश या मौक़ा ही कहाँ है?
आर्थिक आज़ादी ने काफ़ी हद तक देह को आज़ाद कर दिया। लेकिन उसको पूरी आज़ादी अच्छे-बुरे की कंडीशनिंग टूटने से मिली। सिर्फ़ किसी के साथ सो सकने की आज़ादी ही नहीं, किसी के साथ ‘नहीं’ सो सकने की आज़ादी भी।
मानना हमारी बाध्यता है, स्वाभाविकता नहीं। जीवन को तर्क के चश्मे से देखने की आज़ादी भी हम लड़कियों के लिए एक दुर्लभ उपलब्धि है।