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Kindle Notes & Highlights
यह एक हादसा था और हादसा न हो तो जिन्दगी क्या? और यह भी एक हादसा ही है कि बाहर ऐसा मौसम है और वे कमरे में हैं ।
सच सच बताओ रघुनाथ, तुम्हें जो मिला है उसके बारे में कभी सोचा था? कभी सोचा था कि एक छोटे से गाँव से लेकर अमेरिका तक फैल जाओगे? चौके में पीढ़ा पर बैठ कर रोटी प्याज नमक खाने वाले तुम अशोक बिहार में बैठ कर लंच और डिनर करोगे?
छाता खुलने से पहले जो पहली बूंद उनकी नंगी, खल्वाट खोपड़ी पर गिरी, उसने इतना वक्त ही नहीं दिया कि वे समझ सकें कि यह बिजली तड़की है या लोहे की कील है जो सिर में छेद करती हुई अन्दर ही अन्दर तलवे तक टुंक गई है! उनका पूरा बदन झनझना उठा । वे बौछारों के डर से बैठ गए लेकिन भींगने से नहीं बच सके । जब तक छाता खुले, तब तक वे पूरी तरह भींग चुके थे!
। उन्होंने नतीजा निकाला कि जीवन के अनुभव से जीवन बड़ा है । जब जीवन ही नहीं, तो अनुभव किसके लिए ।
‘ला आफ ग्रेविटेशन’का नियम केवल पेड़ों और फलों पर ही नहीं लागू होता, मनुष्यों और सम्बन्धों पर भी लागू होता है । हर बेटे बेटी के माँ बाप पृथ्वी हैं । बेटा ऊपर जाना चाहता हैऔर ऊपर, थोड़ा सा और ऊपर, माँ बाप अपने आकर्षण से उसे नीचे खींचते हैं । आकर्षण संस्कार का भी हो सकता है और प्यार का भी,माया मोह का भी !मंशा गिराने की नहीं होती,मगर गिरा देते हैं!अगर मैंने अपने पिता की सुनी होती तो हेतमपुर में पटवारी रह गया होता! तो यह है!
रघुनाथ ने आश्चर्य से देखा उसकी ओर-“क्या हो गया है इस लौंडे को? इसका भाई कम्प्यूटर इंजीनियर! उसने कभी इस तरह से बातें नहीं की अपने बाप से?” “बातें नहीं कीं, इसीलिए तो चुपके से शादी कर ली और बाप को खबर तक नहीं दी ।” झनझना उठे क्रोध से रघुनाथ । मन हुआ-उसे घर से निकल जाने को कहें लेकिन जाने क्या सोच कर खुद ही उठे और आँगन में आ गए । कोने में बँसखट पड़ी थी, उसी पर बैठ गए । उन्होंने ईश्वर के लिए सिर उठाया आसमान की तरफ । आसमान धुला धुला और उजला उजला लग रहा था-जैसे भोर होने को हो । “देखो माँ! मैं साल डेढ़ साल से कहता रहा हूँ इनसे कि मोटरबाइक ले दो । घराने के सभी लड़कों के पास है, एक मेरे ही पास नहीं है
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“पूछना यह भी था कि ठाकुरों के लिए छूत तो रोटी और भात में ही है, आटा और चावल में तो है नहीं?’
कि ‘शरीफ’ इंसान का मतलब है निरर्थक आदमी; भले आदमी का मतलब है ‘कायर’ आदमी । जब कोई आपको ‘विद्वान’ कहे तो उसका अर्थ ‘मूर्ख समझिए, और जब कोई ‘सम्मानित’ कहे तो ‘दयनीय’ समझिए ।
यह नई मुसीबत न उन्हें जीने दे रही थी, न मरने दे रही थी । गाँव पर पुश्तैनी जमीन जायदाद । बाप दादों की धरोहर । न देखो तो कब दूसरे कब्जा कर लें, कहना मुश्किल । पुरखों ने तो एक एक कौड़ी बचा कर, पेट काट कर, जोड़ जोड़ कर जैसे तैसे जमीनें बढ़ाई ही, चार की पाँच ही कींतीन नहीं होने दी और यहाँ यह हाल! जरा सा गाफिल हुए कि मेड़ गायब! महीने दो महीने में कम से कम एक बार गाँव का चक्कर लगाते रही । देख लें लोग कि नहीं, हैं, ध्यान है । हाल चाल लेते रहो, कुशल मंगल पूछते रहो, खुशी गमी में जाते रहो, सबसे बनाए रखो । अधिया या बँटाई पर खेती करो तब भी । दिया बाती और घर दुआर की देख रेख के लिए कोई नौकर चाकर रखी तब भी!
गाँव घर से माया मोह के लिए इतना कम नहीं था लेकिन उनके बच्चे? वे तो दादा दादी को छोड़ कर पहचानते ही किसको हैं? और दादा दादी को भी कितना पहचानते हैं? चिन्ता उसकी होती है जिससे मोह होता है, प्रेम होता है, जिससे प्रेम ही नहीं, परिचय और सम्बन्ध ही नहीं, उसकी क्या चिन्ता? खेत भी उसे पहचानते हैं जो उनके साथ जीता मरता है । वे खेतों को क्या पहचानेंगे, खेत ही उन्हें पहचानने से इनकार कर देंगे!
ये सारी बातें बेटों की नजर में ‘बुढ़भस’ थीं । आप माटी में ही पैदा हुए और एक दिन उसी माटी में मिल जाएँगे! कभी उससे छूटने या ऊपर उठने या आगे बढ़ने की बात ही आपके दिमाग में नहीं आई-क्योंकि उसमें भी गोबर नहीं तो माटी ही थी । क्या कर लिया खेती करके आपने? कौन सा तीर मार लिया? खाद महँगी, बीज महँगा, नहर में पानी नहीं, मौसम का भरोसा नहीं, बैल रहे नहीं, भाड़े पर ट्रेक्टर समय पर मिले, न मिले, हलवाहे और खेती करो ? और खेती भी तब करो जब हाथ में बाहर से चार पैसे आएँ? क्या फायदा ऐसी खेती से?
जबकि शीला सोनल के साथ आई थी लोकलाज केके कारण, इस कारण से कि न जाएँ तो बेटा उनके बारे में क्या सोचेगा? कि जिस बेटे के सहारे बुढ़ापा कटना है उसकी औरत की कैसे न सुनें? न सुनें तो वह उनकी क्यों सुनेगा? लोग अपने बच्चों का भविष्य क्यों सँवारते हैं? इसलिए कि उनके भविष्य में उनका अपना भविष्य भी छिपा रहता है! कायदे से देखा जाय तो वे उनका नहीं, अपना ही भविष्य सँवारते हैं
“नहीं, बुरा मत मानिए । इसे ऐसे समझिए! मान लीजिए कल आप हम नहीं दे पाएँगे तो उसे बुरा लगेगा, ठीक से काम नहीं करेगी । हैन?” “सब ठीक! लेकिन यह बात मेरे गले नहीं उतर रही है कि कुते बिल्ली की खिला दें लेकिन उसे न खिलाएँ !” “मम्मी, वह आपकी परजा नहीं है, नौकरानी है—प्रोफेशनल । उसका पेट रोटी परॉठे से नहीं, पैसे से भरेगा ! यही नहीं, आप उससे बातें करेंगी और वह सिर चढ़ जाएगी! कल जब आप किसी बात के लिए उसे टोकेंगी, वह नाप !लड़ बैठेगी ! उसे आप वही रहने दें जो है! आए, अपना काम करे और रास्ता नापे !’
बाप का ’ईगो\’!
कभी कभी उन्हें लगता कि वे बापट की तरह बेओलाद होते तो कज्यादा अच्छा होता । वे भी उनकी तरह दारू छान कर गाते हुए मस्त रहते!
भ्रम और भरोसा-ये ही हैं जिन्दगी के स्रोत! इन्हीं सोतों से फूटती है जिन्दगी और फिर बह निकलती है-कलकल-छलछल ! कभी कभी लगता है कि ये अलग अलग दो सोते नहीं है । सोता एक ही है-उसे भ्रम कहिए या भरोसा । यह न हो तो जीना भी न हो ! यही
जीवनाथ वर्मा जाते जाते एक नई मुसीबत खड़ी कर गए थे यह कहते हुए कि अपनों के लिए बहुत जी चुके रग्घू, अब अपने लिए जियो!