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मेरे मन में तो रह-रहकर यह बात आती है कि वह ऐसा फूल है, जिसे किसी ने अभी तक सूँघा नहीं है। ऐसा नवपल्लव है, जिसे किसी ने नाखून से कुतरा नहीं है। ऐसा नया रत्न है, जिसमें अभी छेद भी नहीं किया गया है। ऐसा नया मधु है, जिसका किसी ने स्वाद तक नहीं चखा है। वह निर्मल सौन्दर्य व अखण्ड पुण्यों के फल के समान है। न जाने विधाता उसके उपभोग के लिए किस भाग्यशाली को ला खड़ा करेंगे।
मूर्ख, इनसे हमें दूसरा ही कर प्राप्त होता है, जिसकी तुलना में बहुमूल्य रत्नों का ढेर भी त्याज्य है। देखो, चारों वर्णों से राजा को जो कर प्राप्त होता है, वह नाशवान है; परन्तु ये तपस्वी लोग हमें अपने अक्षय तप का षष्ठांश प्रदान करते हैं।
अहा, इन महाराज का रूप तेजस्वी होने पर भी कैसा विश्वासोत्पादक है! या ऋषियों के समान ही जीवन बिताने वाले इन महाराज के लिए यह ठीक ही है; क्योंकि ये भी मुनियों की भाँति सर्वहितकारी आश्रम में निवास कर रहे हैं। ये भी लोगों की रक्षा करके प्रतिदिन तप-संचय करते हैं और इन जितेन्द्रिय महाराज के चारणों द्वारा गाए गए यशगीत स्वर्ग तक सुनाई पड़ते हैं। हैं तो ये भी ऋषि ही; अन्तर केवल इतना है कि ये राजर्षि हैं।
ठीक है, तब तो इसमें क्या आश्चर्य की बात है कि अकेले ही आसमुद्र पृथ्वी का उपभोग करते हैं। इनकी भुजाएँ दुर्ग के द्वार की अर्गला के समान बलिष्ठ हैं। दैत्यों के साथ युद्ध होने पर सुरांगनाएँ विजय के लिए इनके डोरी चढ़े धनुष तथा इन्द्र के वज्र का ही तो भरोसा रखती हैं।
सचमुच ही मैं चिन्तित हो उठा हूँ। ये दोनों कार्य अलग-अलग स्थान के हैं; इसी से मेरा मन दुविधा में पड़ गया है, जैसे सामने पर्वत आ जाने पर विशाल नदी का प्रवाह दो भागों में बँट जाता है। (कुछ देर विचार कर) मित्र, तुम्हें भी तो माताजी पुत्र के समान ही मानती हैं। इसलिए तुम यहाँ से लौटकर नगर चले जाओ। वहाँ जाकर माताजी से निवेदन कर देना कि मैं तपस्वियों के कार्य में फँसा हुआ हूँ और मेरी ओर से तुम्हीं पुत्र के सब कार्य पूरे कर देना।