जब दुष्यन्त की राजसभा में राजा ने शकुन्तला को निरादरपूर्वक त्याग दिया, उस समय शकुन्तला के विभिन्न मनोभाव भय, लज्जा, अभिमान, अनुनय, भर्त्सना और विलाप सभी कुछ कवि ने चित्रित किए हैं। परन्तु उनके लिए शब्द बहुत ही परिमित व्यय किए गए हैं। जिस शकुन्तला ने विश्वास के साथ सरल भाव से अपने-आपको दुष्यन्त को समर्पित कर दिया था, वह ऐसे दारुण अपमान के समय अपनी सलज्ज मर्यादा की रक्षा कैसे करेगी, यह एकाएक पाठक के लिए कल्पना कर पाना सम्भव नहीं होता। परन्तु कालिदास ने इस परिस्थिति का निर्वाह महाकवि की कुशलता के साथ किया है। इस परित्याग के उपरान्त की नीरवता और भी अधिक व्यापक, गम्भीर और प्रभावशालिनी है।