Prateek Singh

7%
Flag icon
इसी प्रकार पाँचवें अंक में दुष्यन्त शकुन्तला का परित्याग करते हुए कहते हैं कि ‘हे तपस्विनी, क्या तुम वैसे ही अपने कुल को कलंकित करना और मुझे पतित करना चाहती हो, जैसे तट को तोड़कर बहने वाली नदी तट के वृक्ष को तो गिराती ही है, अपने जल को भी मलिन कर लेती है।’
Abhigyan Shakuntal
Rate this book
Clear rating