स्नेह, ममता और सेवा की भावना उसके रोम-रोम में समा गई। दुष्यन्त से गान्धर्व विवाह कर लेने के बाद भाग्य उस पर फिर रुष्ट होता है। दुष्यन्त शापवश उसे भूल जाते हैं और उसका त्याग कर देते हैं। इस अवसर पर उसका एक और रूप भी दिखाई पड़ता है, जिसमें वह राजा की विश्वासघातकता के लिए उनकी उग्र रूप में भर्त्सना करती है। किन्तु भारतीय परम्परा के अनुसार वह दुष्यन्त के लिए कोई अहितकामना नहीं करती और न इसका कुछ प्रतिशोध ही चाहती है। नाटक के अन्त में हमें उसकी क्षमाशीलता का एक और नया रूप दिखाई देता है। दुष्यन्त द्वारा किए गए सारे निरादर और तिरस्कार को वह खुले हृदय से क्षमा कर देती है; और जीवन में यह क्षमा ही समस्त
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