Prateek Singh

29%
Flag icon
भ्रमर, तुम कभी उसकी बार-बार कांपती चंचल चितवन वाली दृष्टि का स्पर्श करते हो। और कभी उसके कान के पास फिरते हुए धीरे-धीरे कुछ रहस्यालाप-सा करते हुए गुनगुनाते हो। उसके हाथ झटकने पर भी तुम उसके सरस अधरों का पान करते हो। वस्तुतः तुम्हीं भाग्यवान् हो, हम तो वास्तविकता की खोज में ही मारे गए।
Abhigyan Shakuntal
Rate this book
Clear rating