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उन दिनों ‘टाटा’ और ‘बॉय-बॉय’ नहीं होता था। फ्लाइंग किस तो था ही नहीं। खामोशी की गहराई ही शायद लगाव का पैमाना था।
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तब उसे लगा था कि ख़त अगर मन से भेजा जाए तो कई जन्मों के बाद भी, पहुँचनेवाले तक पहुँच ही जाता है।
तुम कितनी मौत दे सकते हो ! वह कितनी मौत उठा सकता है ! जब तक दूसरा जीवित रहता है, पहला नहीं जीतता। मौत ही जय-पराजय को तय करती है। सभी युद्धों-महायुद्धों की यही तो हार जीत है...फिर चाहे वह कुरुक्षेत्र में आर्यों का महाभारत संग्राम रहा हो या आर्याना के डेरियस और यूनानी मिल्डियाडिस का मेराथन के मैदान में हुआ युद्ध !
–तब, कुछ पलों तक वे ख़ामोश रहे, फिर उन्होंने पूछा–क्या गांधी विभाजन को मंजूर करते हैं ? तो मैंने कहा था, मुझे तो नहीं लगता कि वे मंजूर करेंगे...विभाजन के फ़ैसले को लेकर गांधी ही सबसे बड़ी समस्या हैं...अगर आप, लियाकत अली खान, अब्दुल-रब-निश्तर अब विभाजन मंजूर कर लें तो इंडिया की आज़ादी का मसला अभी और यहीं हल हो सकता है !
इतिहास रुका हुआ था। उसे कोई पछतावा नहीं था। पछताता तो इन्सान है, इतिहास नहीं।
आपके जिन्ना साहेब मलाबार हिल की जो इमारत छोड़ कर पाकिस्तान जाएँगे, तो बेहतर इमारत बनवा लेंगे...अगर वह चाहेंगे तो अपनी बीवी रति की कब्र उखाड़ कर पाकिस्तान ले जाएँगे, क्योंकि उनका कोई रिश्ता ज़मीन से नहीं है, लेकिन कुलसुम तो इस ज़मीन में सदियों से दफ्न पुरुखों और कासिमाबाद थाने पर मरे अपने बेटे मुंताज की कब्र उठाकर पाकिस्तान नहीं ले जा पाएगी ! अगर सारी कब्रें ले गए तो हिन्दुस्तान का पूरा आँगन उखड़ जाएगा...तब मुसलमान को कटा-फटा मुल्क तो मिल जाएगा, लेकिन वह घर-आँगन से महरूम रह जाएगा !
गंगौली मेरा गाँव है। मक्का मेरा शहर नहीं है। यह मेरा घर है और काबा अल्लाह मियाँ का। खुदा को अगर अपने घर से प्यार है तो क्या वह मआज़-अल्लाह यह नहीं समझ सकता कि हमें भी अपने घर से उतना ही प्यार हो सकता है !
नफ़रत और खौफ़ की बुनियाद पर बनने वाली कोई चीज़ मुबारक नहीं हो सकती...
ग़लत फ़ैसलों से हिंसा उपजती है और हिंसा से अपसंस्कृतियाँ और रक्तपात...
हम कश्मीर में हिन्दू हैं पर हिन्दुस्तान में कश्मीरी कहलाते हैं।
पटना से...क्यों...मेरे फोन की तो उम्मीद भी नहीं होगी आपको... –एक हल्की-सी उम्मीद तो हर दिन थी, पर वह उम्मीद ही क्या, जो पूरी हो जाए ! –मतलब ? –यही कि उम्मीद जड़ों की तरह फैलती है...फोन न आता तो फोन आने की उम्मीद रहती, फोन आ गया है तो दूसरी उम्मीदें साँस ले रही हैं !