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Kindle Notes & Highlights
“बाह्य दृष्टि से परिवर्तन और आन्तरिक दृष्टि से शून्य। शून्य और परिवर्तन-इनके विचित्र संयोग पर तुम्हें शायद आश्चर्य होगा-ये दोनों एक किस प्रकार से हो सकते हैं, यह प्रश्न स्वाभाविक होगा। पर वही स्थिति, जहाँ मनुष्य परिवर्तन और शून्य के भेदभाव से ऊपर उठ जाता है, झान की अन्तिम सीढ़ी है। संसार क्या है? शून्य है। और परिवर्तन उस शून्य की चाल है। परिवर्तन कल्पना है, और कल्पना ही स्वयं शून्य है । समझे ?” मधुपाल इस उत्तर से सन्तुष्ट न हो सका—“देव, आपने कहा कि संसार शून्य है। यह मेरी समझ में नहीं आया। जो वस्तु दृष्टि के सामने है वह शून्य किस प्रकार हो सकती है ?” कुमारगिरि हँस पड़े—“यहीं तो योग की आवश्यकता
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वासना पाप है, जीवन को कलुषित बनाने का एकमात्र साधन है। वासनाओं से प्रेरित होकर मनुष्य ईश्वरीय नियमों का उल्लंघन करता है, और उनमें डूबकर मनुष्य अपने को अपने रचयिता ब्रह्म को भूल जाता है। इसीलिए वासना त्याज्य है। यदि मनुष्य अपनी इच्छाओं को छोड़ सके, तो वह बहुत ऊपर उठ सकता है। ईश्वर के तीन गुण हैं-सत्, चित् और आनन्द ! तीनों ही गुण वासना से रहित विशुद्ध मन को मिल सकते हैं, पर वासना के होते हुए ममत्व प्रधान रहता है, और ममत्व के भ्रान्तिकारक आवरण के रहते हुए इनमें से किसी एक का पाना असम्भव है। विशालदेव
इच्छाओं को दबाना उचित नहीं, इच्छाओं को तुम उत्पन्न ही न होने दो। यदि एक बार इच्छा उत्पन्न हो गई, तो फिर वह प्रबल रूप धारण कर लेगी।
वासनाओं का हनन क्या जीवन के सिद्धान्तों के प्रतिकूल नहीं है ? मनुष्य उत्पन्न होता है, क्यों ? कर्म करने के लिए। उस समय कर्म करने के साधनों को नष्ट कर देना क्या विधि के विधान के प्रतिकूल नहीं है ?
पिपासा तृप्त होने की चीज नहीं। आग को पानी की आव२यकता नहीं होती,उसे घृत की आव२यकता होती है, जिससे वह और भड़के। जीवन एक अविकल पिपासा है। उसे तृप्त करना जीवन का अन्त कर देना है।
सुख तृप्ति और शान्ति अकर्मण्यता, पर जीवन अविकल कर्म है, न बुझनेवाली पिपासा है। जीवन हलचल है, परिवर्तन है; और हलचल तथा परिवर्तन में सुख और शान्ति का कोई स्थान नहीं।”—
अपराध कर्म में होता है, विचार में नहीं। विचार कर्म का साधन-मात्र है।
मैंने इस कुटी में स्त्री को आश्रय देने में संकोच किया था, वह केवल इसलिए कि स्त्री अन्धकार है, मोह है, माया है, और वासना है। ज्ञान के आलोकमय संसार में स्त्री का कोई स्थान नहीं। पर फिर भी तुम दोनों मेरे अतिथि हो; इसलिए तुम दोनों का अतिथि-सत्कार करना मेरा कर्तव्य है।”
प्रकाश पर लुब्ध पतंग को अन्धकार का प्रणाम है।”
पर सत्य एक है, वास्तविकता का ज्ञान ! मार्ग वही ठीक है, जिससे शान्ति तथा सुख मिल सके।”—
शान्ति अकर्मण्यता का दूसरा नाम है; और रहा सुख, उसकी परिभाषा एक नहीं।”
शान्ति अकर्मण्यता का दूसरा नाम है, और अकर्मण्यता ही मुक्ति है। जिसे सारा विश्व अकर्मण्यता कहता है, वह वास्तव में अकर्मण्यता नहीं है, क्योंकि उस स्थिति में मस्तिष्क कार्य किया करता है। अकर्मण्यता के अर्थ होते हैं-जिस शून्य से उत्पन्न हुए हैं, उसी में लय हो जाना। और वही शून्य जीवन का निर्धारित लक्ष्य है। और अभी तुमने सुख की परिभाषा की बात कही थी, उसे भी में ठीक मानता हूँ ! पर सुख एक ही है, उसमें भेद नहीं होता। वह सुख क्या है, जब मनुष्य यही जान गया, तब वह साधारण परिस्थिति से कहीं ऊपर उठ जाता है।”—
तुम्हारे उस शून्य पर विश्वास ही कौन करता है ? जो कुछ सामने है, यही सत्य है और नित्य है। शून्य कल्पना की वस्तु है। शून्य की महत्ता की दुहाई देनेवाले योगी ! क्या तुम अपने और मेरे ममत्व में भेद देखते हो ? यदि हाँ, तो तुम शून्य पर विश्वास नहीं करते, और यदि नहीं, तो तुम्हारा ज्ञान और अन्धकार, सुख और दुख, स्त्री और पुरुष, तथा पाप और पुण्य का भेदभाव मिथ्या है। मनुष्य को जन्म देते हुए ईश्वर ने उसका कार्यक्षेत्र निर्धारित कर दिया। उसने मनुष्य को ! इसलिए जन्म दिया है कि वह संसार में आकर कर्म करे, कायर की भाँति संसार की बाधाओं से मुख न मोड़ ले। और सुख ! सुख तृप्ति का दूसरा नाम है। तृप्ति वहीं सम्भव है,
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धर्म के नीतिशास्त्र को जन्म नहीं दिया है, वरन् इसके विपरीत नीतिशास्त्र ने धर्म को जन्म दिया है।
मनुष्य स्वतन्त्र विचारवाला प्राणी होते हुए भी परिस्थितियों का दास है।
जो जन्म लेता है वह मरता है; यदि कोई अमर है तो अजन्मा भी है। जहाँ सृष्टि है, वहाँ प्रलय भी रहेगा। आत्मा अजन्मा है इसलिए अमर है; पर प्रेम अजन्मा नहीं है। किसी व्यक्ति से प्रेम होता है, तो उस स्थान पर प्रेम जन्म लेता है। सम्बन्ध होना ही उस सम्बन्ध का जन्म लेना है। वह सम्बन्ध अनन्त नहीं है, कभी-न-कभी उस सम्बन्ध का अन्त होगा ही। प्रेम और वासना में भेद है, केवल इतना कि वासना पागलपन है, जो क्षणिक है और इसीलिए वासना पागलपन के साथ ही दूर हो जाती है; और प्रेम गम्भीर है।
सत्य सत्य है; पर सत्य अप्रिय न होना चाहिए। जो कुछ मैंने कहा, वह किसी दूसरे ढंग से प्रिय रूप में कहा जा सकता था।”
मनुष्य अनुभव प्राप्त नहीं करता, परिस्थितियाँ मनुष्य को अनुभव प्राप्त कराती हैं।”
संसार में इस समय दो मत हैं। एक जीवन को हलचलमय करता है, दूसरा, जीवन को शान्ति का केन्द्र बनाना चाहता है। दोनों ओर के तर्क यथेष्ट सुन्दर हैं। यह निर्णय करना कि कौन सत्य है, बड़ा कठिन कार्य है।”
दिन के बाद रात, और रात के बाद दिन। सुख के बाद दुख, और दुख के बाद सुख। बिना रात के दिन का कोई महत्त्व नहीं है, और बिना दिन के रात्रि का कोई महत्त्व नहीं। बिना दुख के सुख का कोई मूल्य नहीं है, और बिना सुख के दुख का कोई मूल्य नहीं। यही परिवर्तन का नियम है। संसार परिवर्तनशील है। मनुष्य उसी संसार का एक भाग है।
साथ ही प्रत्येक व्यक्ति में कमजोरियाँ होती हैं, मनुष्य पूर्ण नहीं है। उन कमजोरियों के लिए उस व्यक्ति को बुरा कहना और शत्रु बनाना उचित नहीं; क्योंकि इस प्रकार एक मनुष्य किसी व्यक्ति का मित्र नहीं हो सकता। संसार के प्रत्येक व्यक्ति को वह बुरा कहेगा, और प्रत्येक व्यक्ति उसका शत्रु हो जाएगा। फलतः उसका जीवन भार हो जाएगा। मनुष्य का कर्तव्य है, दूसरे की कमजोरियों पर सहानुभूति प्रकट करना।”
सहानुभूति और दया का कर्तव्य में कोई स्थान नहीं। कमजोरी की निन्दा करके व्यक्ति से उन कमजोरियों को दूर करना उचित होता है।”
मनुष्य को पहले अपनी कमजोरियों को दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। आर्य श्वेतांक, दूसरों के दोषों को देखना सरल होता है, अपने दोषों को न समझना संसार की एक प्रथा हो गई है। मनुष्य वही श्रेष्ठ है, जो अपनी कमजोरियों को जानकर उनको दूर करने का उपाय कर सके।”
प्रकृति अपूर्ण है। प्रकृति के अपूर्ण होने के कारण ही मनुष्य ने कृत्रिमता की शरण ली है। दूर्वादल कोमल है, सुन्दर है, पर उसमें नमी है, उसमें कीड़-मकोड़े मिलेंगे। इसीलिए मनुष्य ने मखमल के गद्दे बनवाए हैं जिनमें न नमी है, और से कहीं अधिक कोमल हैं। जाड़े के दिनों में प्रकृति के इन सुन्दर स्थानों चलती है कि शरीर कॉपने लगता है। गरमी के दिनों में दोपहर के समय इतनी कड़ी लू चलती है कि शरीर झुलस जाता है। प्रकृति की इन असुविधाओं से बचने के लिए ही तो मनुष्य ने भवनों का निर्माण किया है। उन भवनों में मनुष्य उत्तरी हवा को रोककर जाड़ों में अँगीठी से इतना ताप उत्पन्न कर सकता है कि उसे जाड़ा न लगे। उन भवनों में
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“ये पुष्प कोमल हैं ? ठीक है; पर इनमें कॉटे भी तो हैं। न जाने कितने छोटे-छोटे भुनगे इन फूलों के अन्दर घुसे हुए हैं। रही इनकी कोमलता तथा इनकी सुगन्ध, ये क्षणिक हैं। फिर इनकी सुगंध किस काम की ? एकान्त में ये अपना सौरभ व्यर्थ गॅवा देते हैं। और इस कलरवगायन में माधुर्य हो सकता है। केवल स्वरों का। यह कलरव-गायन, इसमें संयत भाषा न होने के कारण, उस भावहीन संगीत की भाँति है, जिसमें स्वरों का उतार-चढ़ाव नहीं है। इस संगीत में सप्त स्वर एक साथ गूंज उठते हैं। इस कलरव-गायन से कहीं अच्छा मानव कठ का संगीत होता है। और कोयल में केवल पंचम है, जिसको अधिक देर तक सुनने से चित्त ऊब उठता है। कोयल क्या कहती है, यह कोई
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तुम समझती होगी कि प्राकृतिक वातावरण में रहनेवाले मनुष्य सुखी हैं, पर एक बात याद रखना, मनुष्य अपनी स्थिति से कभी सन्तुष्ट नहीं रहता। तुम राज-प्रासाद में पली हो, राज-प्रासाद में तुम्हें कोई रुचि नहीं, उसकी सुन्दरता तथा उसकी सार्थकता के प्रति तुम उदासीन हो; उदासीन ही नहीं, कभी-कभी तुम्हारी उस वातावरण को छोड़ने की इच्छा भी होती होगी। तुम इस प्रकृति के निकटस्थ झोंपड़ियों में सुख देखती होगी, तुम ग्रामों में खुली हवा में पशुओं के साथ प्रकृति से क्रीड़ा करने की सुखद कल्पना के वशीभूत हो जाती हो, ठीक है, स्वाभाविक है; पर जरा इन ग्रामवासियों से तो पूछो-ये लोग यही कहेंगे कि जो सुख है वह महलों में है,
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गुप्त वे बातें रखी जाती हैं, जो अनुचित होती हैं। गुप्त रखना भय का द्योतक है, और भयभीत होना मनुष्य के अपराधी होने का द्योतक है। मैं जो करता हूँ, उसे उचित समझता हूँ, इसलिए उसे कभी गुप्त नहीं रखता। कारण मैं तुम्हें इसलिए नहीं बतलाना चाहता था कि अपने दुख से दूसरों को दुखी करना अनुचित है।”
विराग मनुष्य के लिए असम्भव है; क्योंकि विराग नकारात्मक है। विराग का आधार शून्य है-कुछ नहीं है। ऐसी अवस्था में जब कोई कहता है कि वह विरागी है, गलत कहता है; क्योंकि उस समय वह यह कहना चाहता है कि उसका संसार के प्रति विराग है। पर साथ ही किसी के प्रति उसका अनुराग अवश्य है, और उसके अनुराग का केन्द्र है ब्रह्म। जीवन का कार्यक्रम है रचनात्मक, विनाशात्मक नहीं; मनुष्य का कर्तव्य है अनुराग, विराग नहीं। ब्रह्म से ‘अनुराग' के अर्थ होते हैं ब्रह्म से पृथक् वस्तु की उपेक्षा, अथवा उसके प्रति विराग। पर वास्तव में यदि देखा जाए, तो विरागी कहलानेवाला व्यक्ति वास्तव में विरागी नहीं, वरन् ईश्वरानुरागी होता है। यह
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गत जीवन को फिर नहीं अपना सकती-कैसी मूर्खता की बात कर रहे हो ? मैं आगे बढ़ आई हूँ-पीछे जाने के लिए नहीं। पीछे जाना कायरता है, प्राकृतिक नियमों के प्रतिकूल है। संसार में कौन पीछे जा सकता है और कौन पीछे जा सका है। एक-एक पल आगे बढ़कर मनुष्य मृत्यु के मुख में पहुँचता है, यदि वह पीछे ही जा सकता, तो वह अमर न हो जाता ? आगे ! आगे ! यही तो नियम है, पाप में अथवा पुण्य में, समझे ?"-इतना
स्वामिन्, सत्य क्या है, क्या कभी यह जाना भी जा सकता है ? परिस्थिति की अनुकूलता के दूसरे नाम को ही सत्य के नाम से पुकारा जाता है, और परिस्थितियाँ सदा एक-सी नहीं हुआ करतीं।”
बात स्वयं स्पष्ट है, मनुष्य कभी वास्तव में विरागी नहीं हो सकता। विराग मृत्यु का द्योतक है। जिसको साधारण रूप से विराग कहा जाता है, वह केवल अनुराग के केन्द्र को बदलने का दूसरा नाम है। अनुराग चाह है, विराग तृप्ति है।"-बीजगुप्त
किसी भी स्थान का प्रिय लगना परिस्थिति की अनुकूलता पर निर्भर है। हम स्थान को पसन्द नहीं करते-स्थान तो केवल एक जड़ पदार्थ है; हम पसन्द करते हैं वातावरण को, जिसके हम अभ्यस्त हो जाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति को वह स्थान प्रिय होता है, जहाँ उसका जन्म हुआ है और उसका लालन-पालन हुआ है। सदा वहीं पर रहने से उसके मित्र वहीं पर बन जाते हैं। हमारा जीवन जड़ पदार्थों से निर्मित नहीं है, वह निर्मित है चेतन से; व्यक्तियों से, जिनके संसर्ग में हम आते हैं। ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक है कि मुझे पाटलिपुत्र अधिक प्रिय हो; पर बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती। एक ही परिस्थिति सदा सबको नहीं सुहाती। हमारी प्रकृति परिवर्तन
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लक्ष्यहीन पथिक ?"-बीजगुप्त की विचारधारा बदल गई।-क्या कोई भी व्यक्ति लक्ष्यहीन है-अथवा लक्ष्यहीन होना व्यक्ति के लिए कभी सम्भव है ? शायद हाँ-बीजगुप्त असमंजस में पड़ गया। एक दूसरा भी है ? कोई भी व्यक्ति बता सकता है कि वह क्या करने आया है, क्या करना चाहता है और क्या करेगा ? नहीं, यही तो नहीं सम्भव है। मनुष्य परतन्त्र है। परिस्थितियों का दास है, लक्ष्यहीन है। एक अज्ञात शक्ति प्रत्येक व्यक्ति को चलाती है। मनुष्य की इच्छा का कोई मूल्य ही नहीं है। मनुष्य स्वावलम्बी नहीं है, वह कर्ता भी नहीं है, साधन-मात्र है !”
क्या त्याग और वेदना से जीवन नष्ट होता है ? क्या दुख जीवन का एक भाग नहीं ? क्या प्रत्येक व्यक्ति अपने भाग्य में सुख ही लेकर आता है ? नहीं। दुख इतना ही महत्त्व का है, जितना सुख। तो फिर दुख ही झेला जाए-तो फिर त्याग का ही मार्ग अपनाया जाए। मुझे अपना कर्तव्य करना चाहिए-मेरा कर्तव्य क्या है ?’
वत्स, प्रेम एक मिथ्या कल्पना है। स्त्री और पुरुष का सम्बन्ध केवल संसार में ही होता है-संसार से पृथक् दोनों ही भिन्न-भिन्न आत्माएँ हैं। संसार में भी स्त्री और पुरुष में आत्मा का ऐक्य सम्भव नहीं है। प्रेम तो केवल आत्मा की घनिष्ठता है। वह घनिष्ठता कोई बड़े महत्त्व की वस्तु नहीं होती, वह टूट भी सकती है। उस घनिष्ठता के टूटने पर अपने जीवन को दुखमय बना लेना कोई बुद्धिमत्ता नहीं है।
दुख स्वयं ही समय के साथ दूर हो जाता है। भिन्न प्रकृति के पुरुषों के साथ दुख के दूर होने की अवधि भर ही भिन्न होती है। उसको कृत्रिम उपायों द्वारा उस अवधि के पहले ही दूर करना अवश्य अप्राकृतिक है; पर प्रत्येक अप्राकृतिक व्यवहार, आत्मा का हनन नहीं है-यह याद रखना। कृत्रिमता को हमने इतना अधिक अपना लिया है कि अब वह स्वयं ही प्राकृतिक हो गई है। वस्त्रों का पहनना अप्राकृतिक है, जो भोजन हम करते हैं उस भोजन का करना अप्राकृतिक है, यह भोग-विलास अप्राकृतिक है, यह ऐश्वर्य ही अप्राकृतिक है। प्राकृतिक जीवन एक भार है-उस जीवन में हलचल लाने के लिए ही तो ये खेल-तमाशे, नाच-रंग, उत्सव इत्यादि मनुष्य ने बनाए हैं। और
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प्रेम स्वयं एक त्याग है, विस्मृति है, तन्मयता है। प्रेम के प्रांगण में कोई अपराध ही नहीं होता, फिर क्षमा कैसी ! फिर
“संसार में पाप कुछ भी नहीं है, वह केवल मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता का दूसरा नाम है। प्रत्येक व्यक्ति एक विशेष प्रकार की मनःप्रवृत्ति लेकर उत्पन्न होता है—प्रत्येक व्यक्ति इस संसार के रंगमंच पर एक अभिनय करने आता है। अपनी मनःप्रवृति से प्रेरित होकर अपने पाठ को वह दुहराता है-यही मनुष्य का जीवन है। जो कुछ मनुष्य करता है, वह उसके स्वभाव के अनुकूल होता है और स्वभाव प्राकृतिक है। मनुष्य अपना स्वामी नहीं है, वह परिस्थितियों का दास है-विवश है। कर्ता नहीं है, वह केवल साधन है। फिर पुण्य और पाप कैसा ?
“मनुष्य में ममत्व प्रधान है। प्रत्येक मनुष्य सुख चाहता है। केवल व्यक्तियों के सुख के केन्द्र भिन्न होते हैं। कुछ सुख को धन में देखते हैं, कुछ सुख को मदिरा में देखते हैं, कुछ सुख को व्यभिचार में देखते हैं, कुछ त्याग में देखते हैं-पर सुख प्रत्येक व्यक्ति चाहता है; कोई भी व्यक्ति संसार में अपनी इच्छानुसार वह काम न करेगा, जिसमें दुख मिलेयही मनुष्य की मनःप्रवृत्ति है और उसके दृष्टिकोण की विषमता है।