आज इतने बरसों बाद जब अपनी ज़िंदगी को देखता हूँ तो लग़ता है कि पहाड़ों से झरने की तरह उतरती, चटानों से टकराती, पत्थरों में अपना रास्ता ढूँढती, उमड़ती, बलखाती, अनगिनत भँवर बनाती, तेज़ चलती और अपने ही किनारों को काटती हुई ये नदी अब मैदानों में आकर शांत और गहरी हो गई है।

