थोड़ी देर में ही धुँधलके में सड़क की पटरी पर दोनों ओर कुछ गठरियाँ–सी रखी हुई नज़र आईं। ये औरतें थीं, जो कतार बाँधकर बैठी हुई थीं। वे इत्मीनान से बातचीत करती हुई वायु–सेवन कर रही थीं और लगे–हाथ मल–मूत्र का विसर्जन भी। सड़क के नीचे घूरे पटे पड़े थे और उनकी बदबू के बोझ से शाम की हवा किसी गर्भवती की तरह अलसायी हुई–सी चल रही थी। कुछ दूरी पर कुत्तों के भूँकने की आवाज़ें हुईं। आँखों के आगे धुएँ के जाले उड़ते हुए नज़र आए। इससे इन्कार नहीं हो सकता था कि वे किसी गाँव के पास आ गए थे। यही शिवपालगंज था।