राग दरबारी
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उनकी इज़्ज़त थी कि पूँजीवाद के प्रतीक दुकानदार उनके हाथ सामान बेचते नहीं, अर्पित करते थे और शोषण के प्रतीक इक्केवाले उन्हें शहर तक पहुँचाकर किराया नहीं, आशीर्वाद माँगते थे।
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हमने विलायती तालीम तक देसी परम्परा में पायी है और इसीलिए हमें देखो, हम आज भी उतने ही प्राकृत हैं ! हमारे इतना पढ़ लेने पर भी हमारा पेशाब पेड़ के तने पर ही उतरता है, बन्द कमरे में ऊपर चढ़ जाता है।
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देश में इंजीनियरों और डॉक्टरों की कमी है। कारण यह है कि इस देश के निवासी परम्परा से कवि हेैं। चीज़ को समझने के पहले वे उस पर मुग्ध होकर कविता कहते हैं। भाखड़ा–नंगल बाँध को देखकर वे कह सकते हैं, ‘‘अहा ! अपना चमत्कार दिखाने के लिए, देखो, प्रभु ने फिर से भारत–भूमि को ही चुना।’’
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लड़के ने पिछले साल किसी सस्ती पत्रिका से एक प्रेम–कथा नकल करके अपने नाम से कॉलिज की पत्रिका में छपा दी थी। खन्ना मास्टर उसकी इसी ख्याति पर कीचड़ उछाल रहे थे। उन्होंने आवाज़ बदलकर कहा, ‘‘कहानीकारजी, कुछ बोलिए तो, मेटाफ़र क्या चीज़ होती है ?’
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हम बूढे़ तभी होंगे जब कि मर जाएँगे
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उसने एम.ए. करने के बाद तत्काल नौकरी न मिलने के कारण रिसर्च शुरू कर दी थी, पर
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वे लेक्चर गँजहों के लिए विशेष रूप से दिलचस्प थे, क्योंकि इनमें प्राय: शुरू से ही वक्ता श्रोता को और श्रोता वक्ता को बेवकूफ़ मानकर चलता
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नज़दीक के गाँवों में जो प्रेम–सम्बन्ध आत्मा के स्तर पर क़ायम होते हैं उनकी व्याख्या इस जंगल में शरीर के स्तर पर होती है।
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वैद्यजी की राय जोगनाथ के बारे में बहुत अच्छी न थी। पर वे उस दुनिया में रहते थे जहाँ आदमी का सम्मान उसकी अच्छाई के कारण नहीं, उसकी उपयोगिता के कारण होता है।
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शान्ति–दूत की तरह बिना बुलाये झगड़े के बीच में घुसकर ‘जाने दो’, ‘जाने दो’ कहने की और उसी लपेट में एक करारा झाँपड़ खाकर ‘कोई बात नहीं’ कहते हुए वापस आ जाने की निस्संगता उनके स्वभाव में नहीं थी।
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ज़रा–सा प्रोत्साहन मिलते ही वे उर्दू का कोई आशिक़ाना शेर छेड़ बैठेंगे।
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मुझे तो लगता है दादा, सारे मुल्क में यह शिवपालगंज ही फैला हुआ है।’’