प्रत्येक भारतीय, जो अपना घर छोड़कर बाहर निकलता है, भाषा के मामले में पत्थर हो जाता है। इतनी तरह की बोलियाँ उसके कानों में पड़ती हैं कि बाद में हारकर वह सोचना ही छोड़ देता है कि यह नेपाली है या गुजराती।
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